Tuesday 24 August 2010

मुल्क की आज़ादी और खाकसार की दाढ़ का दर्द

शीर्षक खाकसार की दाढ़ के दर्द की तरह कुछ लम्बा हो गया है लेकिन डाक्टर का कहना है कि घबराने वाली कोई बात नहीं है।
जब जांच के बाद डाक्टर अपनी मुखमुद्रा सांप कांटे वाले व्यक्ति की तरह बना लेता है या उस बैंक कर्मी की तरह बना लेता है जिसका एरियर उसे साढे़ तीन साल बाद भी न मिले तो रोगी का रक्तचाप बढ़ जाता है और वह घबराकर पूछता है कि डाक्टर साहब, घबराने वाली कोई बात तो नहीं है? यानी इजाजत दे ंतो घबराना शुरू करूं।
डाक्टर अपना कैंची हथौड़ा एक तरफ जाकर मांजते हुए जवाब देता है- नहीं, घबराने वाली कोई बात नहीं है।
रोगी को सांत्वना मिलती हैं। वह समझ जाता है कि घबराने वाली कोई बात नहीं है।
बिलकुल वैसे ही जैसे उत्तर में गोला बारूद चल रहा है, दक्षिण में नक्सलवाद ठांठूं कर रहा हैं, आदमी की जान लेना शगल मान लिया गया है, रिश्वत दिये लिये बिना कोई काम करने को राजी नहीं है, और... और घबराने वाली कोई बात नहीं है।
दाढ़ में दर्द है कि बढ़ता ही जा रहा है। डाक्टर कहता है कि करार जल्दी आ जायेगा। मैं जानता हॅूं कि करार तब आयेगा जब डाक्टर के साथ पूरे जबड़े का करार करूंगा।
डाक्टर सलाह देता है कि रूट कैनाल करा लो। उसकी नीयत जड़ खोदने में है। मैं मना कर देता हॅंू । मैं बीमारी की जड़ तक पहुंचना चाहता हॅू। जैसे प्रधानमंत्री कश्मीर पहंुच गये। दर्द असहनीय हो रहा है। मैं डाक्टर से कहता हूं कि जल्दी से दाढ़ निकाल लो, मैं इसे कोई राजनीतिक रंग नहीं देना चाहता। डाक्टर राजी हो जाता है। थोड़ी देर बाद दाढ़ को ससम्मान निकाल दिया जाता है जैसे सीरीज हारने के बाद कोच को ससम्मान निकाल दिया जाता है।
दर्द अभी भी बदस्तूर जारी है। मैं डाक्टर के पास दोबारा जाकर पूछता हूं कि घबराने वाली कोई बात तो नहीं। डाक्टर अपना चिमटा हथौड़ा हाथ में लेकर कहता है कि नहीं, घबराने वाली कोई बात नहंी है।
मैं बताता हूं कि दर्द तो अभी भी हो रहा है। डाक्टर अवगत कराता है कि दर्द मसकुलर है। देखिये न, दर्द दर्द में अंतर है। पहले पेन था अब मसकुलर पेन है। मैं दर्द के मारे बिलबिला रहा हॅंू। डाक्टर नाराज होता है। आप तीन घंटे में ही परेशान हो गये। सोनिया जी को देखिये, साढ़े तीन साल से ममता-मसकुलर झेल रही है।
मैं बोल नहीं सकता था, इसलिये नहीं पूछा कि कौन सोनिया जी? सिर्फ आइडिया लगाकर रह गया कि कौन सी सोनिया जी।
डाक्टर ने मुझे च्युंगम चबाने की सलाह दी। बोला, मसकुलर में फायदा होगा।
दो घंटे बाद मैंने डाक्टर को फोन किया-डाक्टर साहब, रबड़ चबाचबाकर थक गया हूं, दर्द में कोई आराम नहीं है। ऊपर से च्यंूगम का खर्चा और बढ़ गया है। 
उधर से डाक्टर के रोने की सी आवाज आयी- मुल्क का मसकुलर नहीं है जो च्यंगम की तरह लम्बा खींचने पर आराम होगा। इसे तो चबाये जाओ। कलमाड़ी ने चाहा तो जरूर लाभ होगा।
मैं इसे राजनीतिक रंग नहीं देना चाहता था। सो पूछा- डाक्टर साहब, घबराने वाली तो कोई बात नहंीं है।
डाक्टर ने फोन पटक दिया।
आप से ही पूछता हूं - घबराने वाली कोई बात तो नहीं?











Tuesday 3 August 2010

क्या करेंगे आप!


फेसबुक पर जब आप कोई खूबसूरत सा चेहरा देखने के बाद उससे दोस्ती करना चाहें और मैसेज भेजने पर भी वो जवाब न दे तो क्या करेंगे?
दोबारा मैसेज भेजेंगें?
या उसे आवाज देंगे?
जब आप किसी ब्लॉग पर अपनी टिप्पणी छोडे़ और आपकी टिप्पणी सात दिनों बाद भी प्रकाशित न हो, तो?
क्या करेंगे आप?
सिर धुनेंगे?
जब पूरे महीने आपका घर बंद होने के बाद भी आपको पांच हजार का टेलीफोन का और दस हजार का बिजली का बिल मिले तो?
जी बताइये, क्या करेंगे आप?
क्या मेन लाइनपकड़ लेंगे?
जब पन्द्रह दिनों की लीव के बाद  ऑफिस पहुँचने पर पिछले दो सप्ताहों की सारी पैंडिंग फाइलें आपको अपनी टेबिल पर मिलें तो क्या करेंगे आप?
क्या दोबारा मेडिकल लीव पर चले जायेंगे?
या गधे की तरह फिर से जुट जायेंगे?
आप रिश्वत लेने में विश्वास नहीं रखते ; लेकिन जब आपसे आपके काम को कराने के लिए रिश्वत माँगी जाये, तो?
क्या रिश्वत देकर काम चलायेंगे?
फिर खुद भी रिश्वत लेना प्रारम्भ कर देंगे?
आप दहेज के खिलाफ हैं। चाहते हैं कि जब आपकी शादी हो तो आप एक पैसा भी लड़की वाले से नहीं लेंगे। लेकिन जब आप अपनी बहिन के रिश्ते की बात चलाएं और लड़के वाले आपसे दहेज की माँग करें, तो?
क्या करेंगे आप? दहेज देंगे?
या अब लेंगे?
आप पुस्तकें खरीद कर पढ़ने में विश्वास रखते हैं। पूरे साल का सब्सक्रिब्शन भेजने के बाद भी आपकी पत्रिका घर पर न पहुँचे, तो?
किसके कपड़े फाड़ेंगे?
डाकिये के या अपने?
आपने दो अलग-अलग परीक्षाओं की तैयारी की है। मालूम हुआ कि दोनों परीक्षाएँ एक ही दिन हो रही हैं। क्या करेंगे?
पैसे वापिस माँगेंगे?
या अपना क्लोनतैयार करके उसे भेजेंगे?
पत्नी को झूठ बोलकर प्रेमिका के साथ उसी होटल में पहुँच जाते हैं ;जिसमें पहले से ही पत्नी अपने दोस्त के साथ बैठी है, तो?
भाग जायेंगे?
या पत्नी को विशकरके वहीं डिनर लेंगे?
आप लिबरलहैं। पत्नी को उतनी ही छूट देते हैं; जितनी आप लेते हैं। पत्नी आपके दोस्त के पास जाना चाहती है। क्या करेंगे?
उसे दोस्त के घर तक छोड़कर आयेंगे?
या खुद ही जाने को कहेंगे?
यह लेख पढ़ते - पढ़ते आपको अचानक लगता है कि इसमें तो आप पर ही निशाना साधा गया है, तो क्या करेंगे?
मुस्कुराकर पढ़ते रहेंगे?
या पढ़के मुस्कुरायेंगे?
या न मुस्कुरायेंगे, न पढ़ेंगे?

Friday 23 July 2010

अपनी दुनिया का पागल

हर आदमी कहीं न कहीं खोया हुआ है। हम उसे कहीं पाते भी हैं तो खोया हुआ ही पाते हैं। कोई पैसा कमाने में खोया है तो कोई गंवाने में। मेरे एक मित्र शेयर मार्केट में ही खोये हुए हैं। जीवन का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने शेयरों के उठने और गिरने के नाम कर दिया। इस चक्कर में वो जीवन में कई बार गिरे और कई बार उठे। आज भी वे सुबह शेयर बाजार के उठने से पूर्व ही उठ जाते हैं तथा शाम को शेयर बाजार के  गिरने पर बिस्तर पर इस लक्ष्य के साथ गिरते हैं कि इंशाअल्लाह कल सुबह फिर शेयर बाजार के साथ ही उठेंगे।
एक अन्य परिचित जमीनें खरीदनें में ही खोये हुए हैं। खरीदते हैं, बेचते हैं, खरीदते हैं, बेचते हैं। सुना है उन्होंने अपने लिये दो गज जमीन भी खरीद ली है जिसे वे जल्दी ही अपनी पत्नी को अच्छे दामों पर रीसेल करने जा रहे हैं।
एक अन्य परिचित दारू की बोतल के साथ खोये हुए हैं। बोतल के साथ ही वे उठते हैं तथा बोतल के साथ ही सोते हैं। ऑफिस भी बोतल को साथ ही लेकर जाते हैं। हाथ में फाइलें होती हैं, लंच बाक्स होता है, और होती है दारू की बोतल। वहां बैठकर पूरा लुत्फ उठाते हैं। साहब ने फाइल पास कर दी तो खुशी के दो घूंट मार लिये और फाइल पर विपरीत टिप्पणी कर दी तो गम के चार घूँट 
यानी हर आदमी का अपना दीन और अपना निजी ईमान होता है और वह अपनी ही दुनिया में खोया रहता है। लेखक है तो उपन्यास में और ई-लेखक है तो ब्लॉगिंग में। कवि है तो कविता में और अकवि है तो अपनी निजी 'कविता' में।
गर्ज यह है कि खोये हुए आदमी की अपनी ही दुनिया होती है। उसकी यह दुनिया उसे जीने की राह दिखाती है। वह अपनी ही दुनिया में पागल होता है, अपनी ही दुनिया का पागल होता है।
पागल आदमी के भी अनेक प्रकार होते हैं। कोई एक नम्बर का पागल होता है तो कोई परले दरजे का। कुछ पागल आपको सडकों पर घूमते और मारे-मारे फिरते दिखाई देंगे तो कुछ का स्तर इतना ऊंचा होता है कि उन्हें अपने इस विशेषण को मेन्टेन करने की पगार भी मिलती है और कुर्सी भी।
पागल लोग लोक में बिखरे पडे़ हैं। उनकी अपनी दुनिया होती है। लेकिन उनकी दुनिया से उन्हें दूर करने का प्रयास क्यों किया जाये? उनकी दुनिया दूर होने का अर्थ है उनसे उनका जीवन छीन लेना। यह उनकी जीवन का फलसफा होता है।अब पागलों की तरह पागलों पर लिखना पागलपन नहीं तो और क्या है

Friday 16 July 2010

छोटे शहर में light

छोटे शहर में लाइट उतनी देर ही रहती है जितनी देर बड़े शहर में आदमी टॉयलेट में रहता है।
यह जानने के लिये कि छोटे शहर में चौबीस घंटों में कितनी देर लाइट आती होगी, आपको टॉयलेट मे जाने की जरूरत नहीं। यह बात आप टॉयलेट के बाहर बैठकर भी जान सकते हैं।
छोटे शहर का आदमी कम्प्यूटर के सामने अपनी ईमेल चैक करने के लिये बैठता है तो लाइट चली जाती है और आदमी बेचारा अपनी फीमेल ही देखता रह जाता है। शायद इसलिये छोटे शहर की लाइट जाने पर आदमी सीधा चीफ मिनिस्टर को कोसता है, पॉवर ग्रिड को नहीं।
लाइट जाने के बाद अंधेरे में कौन-कौन से कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं, इस पर अनगिनत पोथियां लिखी जा सकती हैं। लेकिन लाइट आने के बाद छोटे शहर का आदमी जो कार्य सर्वप्रथम करता है' वह होता है अपनी और अपने घर की बैटरियां चार्ज करना।
कुछ वर्षों पूर्व मैंने अपने एक कजिन से जो एक महानगर में रहता था, बात-बात में पूछा था कि आपके यहां लाइट कब-कब जाती है, सुनकर उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था कि मैंने तो यहां कभी लाइट जाती देखी ही नहीं।
प्रतिउत्तर में मैंने अपने कजिन का मजाक उडाया कि तुम कितने दुर्भाग्यशाली हो जो जाती हुई लाइट को आज तक देख नहीं पाये। हमें देखो कि हम एक छोटे से कस्बे में रहते हैं फिर भी इंसान के इस चमत्कार को दिन में अडतालीस दफा (उन दिनों हमारे टाउन में लाइट अडतालीस बार जाती थी) देखते हैं।
जब वह फिर मुस्कुराया तो मैंने उसे लताडा कि यह मुस्कुराने का नहीं, झेंपने का विषय है कि उसने कभी लाइट को जाते हुए नहीं देखा।
मेरी पत्नी जब कभी लाइट का संदर्भ लेते हुए छोटे शहर को छोड कर बडे शहर में शिफ्ट करने का सुझाव देती है तो मैं उसे समझाता हूं कि हमारे यहां लाइट बार-बार जा रही है तो बार-बार आ भी तो रही है। बडे शहर में तो सिर्फ एक बार ही जाती है और एक बार ही आती है।
मैं उसे यह भी समझाता हूं कि हम उनसे बेहतर स्थिति में हैं जिन गांवों में लाइट एक बार जाती है तो फिर कभी नहीं आती।
जैसे इस देश में ईमानदारी की बत्ती एक बार गुल हुई है तो उसके दर्शन अभी तक नहीं हुए।
वैसे भी बड़े शहर के सामने छोटे शहर की बत्ती हमेशा गुल ही रहती है।
कभी आधी रात को आपको, हाथ में पंखा लिये, छतों पर टहलते, पसीना सुखाते और मच्छर मारते हुए लोग छतों पर दिखाई दें तो आप समझ जाइये कि आपका हवाई जहाज लाइट आने की प्रतीक्षा में रात काटते हुए किसी छोटे शहर के ऊपर से गुजर रहा है।

Monday 5 July 2010

कुत्ता-दर्शन


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Sunday 27 June 2010

झूठ



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Wednesday 23 June 2010

चौथा idiot


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