कविता (मातृ दिवस पर)
*जिनकी माँ नहीं होती*
जिन बच्चों की माँ नहीं होती
बाप ज़िम्मेदारी निभाते हैं माँ की भी
जिस तरह भगवान में आस्था होने पर
लोग पत्थर को भगवान मान लेते हैं
बच्चे भी ढूंढ लेते हैं बाप की आंखों में माँ का अक्स
पत्थर नहीं होता बाप
सिर्फ कलेजा पत्थर का रखता है
पार कराने होते हैं उसे बच्चे
भवसागर के पार
जिनकी नहीं होतीं माँ
उनकी जिम्मेदारी कहीं ज़्यादा बढ़ जाती है जीवन में
वो बहाने नहीं बना सकते माँ के लाड़ में बिगड़ जाने का
वो अपने कदमों को नियंत्रित रखते हैं
और करमों को दुरुस्त
वो प्यार की कीमत ज़्यादा जानते हैं उन बच्चों से
जिनकी माँ होती हैं
जब गली में खड़े वे बच्चे
जिनकी माँ होती हैं
सड़क पार कराने के लिए माँ को आवाज़ लगा रहे होते हैं
वे बिना ऊँगली पकड़े भी पार कर जाते हैं ज़िन्दगी के बड़े-बड़े चौराहे
जिनकी माँ नहीं होती
माँ होनी चाहिए सभी की
पर नहीं होती
तो इसके लिए ये बच्चे भगवान पर नहीं बिगड़ते
और न ही दोष देते हैं मुक़द्दर को
दूसरे बच्चों की माँ को देखकर
सर्वाधिक नेह उनकी आंखों से ही टपकता है
जिनकी अपनी माँ नहीं होती
जो सौन्दर्य माँ की आंखों में होता है
वो सारा का सारा उन बच्चों की आंखों में अंतरित हो जाता है
जिन बच्चों की माँ नहीं होती
जिन बच्चों की माँ नहीं होती
उन्हें कभी घबराने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती है
उनके मस्तक पर धरती माँ का तिलक लगा होता है
मुसीबत उन पर आने से डरती है
तो बच्चों, कभी मिलो ऐसे बच्चों से
जिनकी माँ नहीं होती
तो सम्मान के साथ मिलना
क्योंकि माँ किसी एक की नहीं होती
वो चली जाती है उनके पास
जिन्हें उनकी ज़्यादा ज़रूरत होती है
बिन माँ का होना
अधूरापन नहीं
सिम्बल है सम्पूर्णता का
परिचायक है परिपक्वता का
क्योंकि माँ भीतर होती है
बच्चे के।
*जितेन्द्र 'जीतू'