Sunday, 12 May 2019

कविता मातृ दिवस पर/ जिनकी माँ नहीं होती।

कविता (मातृ दिवस पर)
*जिनकी माँ नहीं होती*

जिन बच्चों की माँ नहीं होती
बाप ज़िम्मेदारी निभाते हैं माँ की भी
जिस तरह भगवान में आस्था होने पर
लोग पत्थर को भगवान मान लेते हैं
बच्चे भी ढूंढ लेते हैं बाप की आंखों में माँ का अक्स
पत्थर नहीं होता बाप
सिर्फ कलेजा पत्थर का रखता है
पार कराने होते हैं उसे बच्चे
भवसागर के पार

जिनकी नहीं होतीं माँ
उनकी जिम्मेदारी कहीं ज़्यादा बढ़ जाती है जीवन में
वो बहाने नहीं बना सकते माँ के लाड़ में बिगड़ जाने का
वो अपने कदमों को नियंत्रित रखते हैं
और करमों को दुरुस्त
वो प्यार की कीमत ज़्यादा जानते हैं उन बच्चों से
जिनकी माँ होती हैं

जब गली में खड़े वे बच्चे 
जिनकी माँ होती हैं
सड़क पार कराने के लिए माँ को आवाज़ लगा रहे होते हैं
वे बिना ऊँगली पकड़े भी पार कर जाते हैं ज़िन्दगी के बड़े-बड़े चौराहे
जिनकी माँ नहीं होती

माँ होनी चाहिए सभी की 
पर नहीं होती
तो इसके लिए ये बच्चे भगवान पर नहीं बिगड़ते
और न ही दोष देते हैं मुक़द्दर को 
दूसरे बच्चों की माँ को देखकर
सर्वाधिक नेह उनकी आंखों से ही टपकता है
जिनकी अपनी माँ नहीं होती

जो सौन्दर्य माँ की आंखों में होता है
वो सारा का सारा उन बच्चों की आंखों में अंतरित हो जाता है
जिन बच्चों की माँ नहीं होती

जिन बच्चों की माँ नहीं होती
उन्हें कभी घबराने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती है
उनके मस्तक पर धरती माँ का तिलक लगा होता है
मुसीबत उन पर आने से डरती है

तो बच्चों, कभी मिलो ऐसे बच्चों से 
जिनकी माँ नहीं होती
तो सम्मान के साथ मिलना
क्योंकि माँ किसी एक की नहीं होती
वो चली जाती है उनके पास
जिन्हें उनकी ज़्यादा ज़रूरत होती है

बिन माँ का होना
अधूरापन नहीं
सिम्बल है सम्पूर्णता का 
परिचायक है परिपक्वता का 
क्योंकि माँ भीतर होती है
बच्चे के।
   *जितेन्द्र 'जीतू'












Saturday, 10 November 2018

फ़िल्म समीक्षा/ठग्स ऑफ हिंदुस्तान


             ठगों का नाम सुनकर कभी किसी काल में, बरसों पूर्व, पसीने निकल जाते होंगे। लेकिन निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य की "ठग्स ऑफ इंडिया" देखने पर पैसे निकले, पसीने नहीं। पौने तीन घंटे की इस फ़िल्म में अमिताभ हैं, आमिर हैं, कैटरीना है और फातिमा सना शेख है। इसमें आमिर का चुलबुला स्टाइल है और अमिताभ की धीर गंभीर अभिनय शैली है।

              फ़िल्म के शुरू में क्लाइव का नाम सुनते ही लगता है कि यह कहीं  रोबर्ट क्लाइव तो नहीं। लेकिन नहीं। वह क्लाइव तो 1774 को ही दिवंगत हो चुके थे जबकि फ़िल्म में 1795 की कहानी कही गयी है और यहां जॉन क्लाइव है। पूरी फिल्म में अंग्रेजों को ठगों से मात खाते दिखाया गया है। यह दो बड़े नायकों आमिर-अमिताभ की संयुक्त रूप से पहली फ़िल्म है तो ऐसा होना भी चाहिए था। दोनों ठग बने हैं लेकिन एक अंतर है। आमिर के चरित्र में कुछ विविधता है जबकि अमिताभ का वही पुराना एंग्री मैन का रूप भुनाया गया है। आमिर का गधे के ऊपर बैठकर संवाद अदायगी करना मुल्ला नसरुद्दीन नाम के बहुत पुराने चरित्र का स्मरण कराता है। 

               फ़िल्म का नाम ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान है लेकिन अमिताभ किस लिहाज़ से ठग हैं यह शोध का विषय है। अंग्रेजों के पानी के जहाज़ पर रूप बदलकर हमला करना और उन्हें लूटना बड़े ठग का काम है जबकि छोटे ठग यानी आमिर का काम काफिले के भीतर सेंध लगाकर उनका विश्वास जीतना, फिर लुटेरों को उनकी सूचना देकर लुटवाना और फिर अंग्रेजों को लुटेरों की सूचना देकर इनाम हासिल करना है। जिस तरह वे चरित्र बदलते हैं, ठग ऑफ हिन्दोस्तान ही लगते हैं।

                 इतिहास से प्रेरित स्टोरी (इतिहास नहीं) वाली इस फ़िल्म में नाच गाने के लिए रखी गई कैटरीना (सुरैया) का रोल उतना ही है जितना कि अमिताभ की फिल्मों में होता था। उनके डांस स्टेप्स 1795 के हैं, यह भी शोध का विषय है। रोनित रॉय (मिर्ज़ा सिकंदर बेग ) की जीवित बेटी और दंगल फेम फातिमा (ज़फीरा) को अमिताभ (खुदाबक्श आज़ाद) युद्ध से बचा लाते हैं। वह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में अमिताभ की सहयोगी बनी है और बिना एक्सप्रेशंस वाले सीन्स करती नज़र आती है। वस्तुतः यही किरदार फ़िल्म का बेसिक क़िरदार है। फ़िल्म की कहानी इसी किरदार को लेकर शुरू हुई थी और इसी किरदार पर खत्म होती है। बीच में बहुत कुछ है जो इस फ़िल्म को हिट कराने के लिए ज़रूरी है।

                    आंखों से अभिनय करनेवाले अमिताभ का मध्यांतर से पूर्व हटना, उनके रोल को कम करना अखरता है। इस अवधि में आमिर (फिरंगी मल्लाह) को कहानी बढ़ाने का अवसर मिलता है। लोएड  ओवन के रूप में जॉन क्लाइव जमे हैं। आमिर के दोस्त के रूप में जीशान अय्यूब (शनि) की भूमिका फाड़ू है। ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान दो पीढ़ियों के दिग्गजों के अभिनय कौशल का इम्तिहान है। इस इम्तेहान में डायरेक्टर बाद वाली पीढ़ी के साथ खड़ा दिखाई देता है। आमिर की फिल्मों की धन कमाऊ क्षमता और लोकप्रियता और अमिताभ के पक्ष में सिर्फ लोकप्रियता के चलते यह ज़रूरी लगा होगा। 

                     आजकल फिल्मों के गीतों के अधिकार पहले ही बिक जाते हैं और इससे बजट का अधिकांश हिस्सा कवर करने में मदद मिलती है। साढ़े तीन सौ करोड़ के इस सौदे में से गीत-संगीत बेचने से प्राप्त कमाई को हटाने पर जो कुछ बचता है उसे ये दोनों दिग्गज आसानी से पब्लिक से प्राप्त कर लेंगे, इसमें संदेह नहीं। आखिर दो हज़ार स्क्रीन्स के यूनिवर्सल और 5 हज़ार स्क्रीन्स के देसी राइट्स यों ही बरबाद थोड़े जाएंगे। ऐसे में अमिताभ बच्चन का आमिर खान को 1000 करोड़ कमाने का आशीर्वचन कितना प्रभावी सिद्ध हो पाता है, यह तो वक़्त ही बताएगा। 

                       कैमरे ने कमाल किया है। फाइटिंग के दृश्य फ़िल्म को फाइट में रखते हैं। गीत के बोल मौके के हैं पर तभी तक याद रहते हैं जब तक देख रहे होते हैं। संगीत पर मेहनत के साथ पॉपुलैरिटी पक्ष पर भी ध्यान दिया गया होता तो देखकर बाहर निकलने वाले दर्शक कुछ गुनगुना भी रहे होते। अमिताभ-आमिर के मध्य डायलागबाज़ी व फाइट सीन्स और आमिर के कॉमिक सीन्स पिक्चर की यू एस पी हैं।

Tuesday, 7 March 2017

महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति

महिलायें लोकतांत्रिक राष्ट्र की सबसे सुन्दर वस्तु हैं इसलिये इन पर राष्ट्रीय सहमति बनानी अत्यन्त आवश्यक है। एक बार राष्ट्रीय सहमति का ठप्पा लग गया तो फिर महिलाओं के साथ कहीं भी कुछ भी किया जा सकता है और कोई भी जीवित व्यक्ति/पार्टी विरोध कारगर नहीं होगा।
यूँ महिलाओं के लिये महिलाओं के विरूद्ध अभी भी काफी कुछ पुरूषों द्वारा किया जा रहा है। मसलन, वर्ष में एक दिन महिला-दिवस के रूप में मनाया जाता है उस दिन जहाँ सरकारी और संस्थागत तौर पर कई कार्यक्रम सम्पन्न होते हैं वहीं ठोक उसी दिन गैर सरकारी और व्यक्तिगत तौर पर महिलाओं का मानमर्दन/क्रियाक्रम सम्पन्न किया जाता है और इस धार्मिक अनुष्ठान में निर्धन और सम्पन्न दोनों प्रकार के पुरूष बराबरी से हिस्सा लेते हैं।
साहित्य जगत में महिलाओं पर काफी कुछ लिखा गया है और वर्तमान में भी कई जागरूक सम्पादक, महिलाओं पर अपनी-अपनी पत्रिकाओं के विशेषांक निकाल रहे है जो पूरी/अपूरी तरह महिलाओं की निजी समस्याओं और कभी-कभी निजी अंगों पर केन्द्रित होते हैं। इन पत्रिकाओं में लेखिकाओं के लेख भी छपते हैं जिनकी कोशिश यह रहती है कि औरतों की ज्यादा से ज्यादा समस्यायें पाठकों के समक्ष रखी जायें किन्तु उनका निदान पाठकों पर और राष्ट्र पर छोड़ दिया जाये।
मैं चूंकि महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति बनाने के इस भव्य आयोजन में संयोजक का गैर ज़िम्मेदाराना कर्तव्य निभा रहा हूँ इसलिये सबसे पहले मेरा यह दायित्व बनता है कि मैं अपने मान्य विचार आप लोगों के समक्ष रखूँ।
‘साथियों, चूँकि इस लेख को पढ़ने और पढ़कर समझने वाले ज़्यादातर मित्र पुरूष ही हैं और प्रत्येक के घर में एक ना एक अबला स्त्री होती है अतः क्यों न इस राष्ट्रीय सहमति की शुरूआत घर से ही की जाये। घर में पायी जाने वाली महिला चाहे वह बीवी हो, माँ हो या बहिन, उसे इस बात की कड़ी हिदायत दे देनी चाहिये कि वह वस्त्रों में क्या पहिने और क्या न पहिने। तकनीकी शब्दावली में उस पर ‘ड्रेस कोड’ तत्काल प्रभाव से लागू कर देना चाहिये। पति लोग अपनी पत्नी को साड़ी न बांधने के निर्देश दे सकते है क्योंकि साड़ी एक यौ नोत्तेजक पोशाक है जिसे बांधकर शरीर के मध्य भाग की नुमाइश होती है। अतः सलवाज कमीज पहनें। कमीज का डिजाइन और उसकी कटिंग पति द्वारा अभिप्रमाणित हो। कड़ाई पेट से ऊपर न हो और गला, ज्यादा नीचा न हो। आस्तीन कुहनी से ऊपर बिल्कुल न जाने पाये क्योंकि इससे मित्रों से खतरा रहता है और पत्नी निज़ी नहीं रहने पाती।
युवा अपनी बहिनों को और वृद्ध अपनी बेटियों को जींस न पहिनने दें। जींस एक पाश्चात्य पोशाक है और यह दूसरे को बहिन-बेटियों पर ही फबती है अपनी पर नहीं।
तेजी से बढ़ता बच्चा लोग यह खेल अपनी-अपनी माँओं पर खेल सकते हैं। वे क्या पहिन-ओढ़ रही हैं इस पर गहरी नज़र रखें। बाप से चुगली करें और माँ को मनपसंद कपड़े पहिनने से रोकें। किन्तु तारिकाओं के ग्लैमरस् पोस्टर्स इकट्ठें करें और फिल्में खूब देखें।
किसी भी मुद्दे पर राष्ट्रीय सहमति के लिये आमजनों का सहयोग परम् आवश्यक है और अभी तक आमजनों में महिलायें भी आती रही हैं। अतः महिलाओं के सहयोग के बिना महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति बनानी मुश्किल प्रतीत होती है। देश की कामकाजी महिलायें इस दिशा में अपने-अपने पतियों को अपनी-अपनी पसंद के ठोस सुझाव और दिशा-निर्देश दे सकती हैं। उन्हें चाहिये कि वे अपने पतियों के घर के बाहर उठने-बैठने-सोने में एतराज़ बिल्कुल न करें। घरेलू महिलाओं का दृष्टिकोण इस मामले में संकुचित हो सकता है किन्तु कामकाजी महिलाओं का सहृदयता दिखलानी चाहिये। पति को घर पर आने वाली कामवाली पसंद हो तो घर का मामला घर में ही निबटा लेना चाहिये।
राष्ट्रीय सहमति पर मैं जो यह अपनी बात कह रहा हूँ उसे कोरा भाषण मात्र ही न समझा जाये। महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति के व्यापक अर्थ हैं जिनमें प्रमुख हैं, महिलाओं की इज्ज़त उछालने पर राष्ट्रीय सहमति, महिलाओं की आबरू पर राष्ट्रीय सहमति, महिलाओं के चीरहरण पर राष्ट्रीय सहमति आदि-आदि। प्रबुद्ध और योग्य व्यक्ति इनमें अश्लील निहितार्थ भी निकाल सकते हैं। उनका स्वागत है। किन्तु एक बात तो तय है। एक बार समूचा राष्ट्र महिलाओं पर सहमत हो जाये तो फिर उनकी इज्ज़त भरे बाजार में उछालने अथवा पति परमेश्वर द्वारा सरेआम चप्पलों से इनके साथ प्रेम प्रदर्शन करने से कोई नहीं रोक सकता। खुद कोई महिला भी नहीं।’

Thursday, 9 February 2017

शाहरुख़ नहीं, रईस !!

रईस में शाहरुख़ नहीं, शाहरुख़ में रईस हैं। और ये कारनामा करने वाले खुद शाहरुख़ हैं। इस लिहाज से उनका ये बोल्ड स्टेप है। वही बोल्ड स्टेप जो उन्होंने बाज़ीगर में तब लिया था जब वो एस्टेब्लिश्ड नहीं थे और उनके सामने फिल्म में नवाज़ुद्दीन भी नहीं थे, जिन्होंने आधे से ज़्यादा फिल्म में रईस को दबाये रखा। शाहरुख़ तो खुद फिल्म ख़त्म होने से करीब आधे घंटे पहले तक रईस से दबे हुए थे।
ये फिल्म क़ायदे से शाहरुख़ की थी भी नहीं। फायदे की भी नहीं थी। जो लोग फिल्म में शाहरुख़ को देखने गए, उन्हें रईस मिला तपाक से और जो रईस को देखने गए, उन्हें न तो पूरा रईस ही मिला और न ही पूरा शाहरुख़।
शाहरुख़ को डॉन जैसी फिल्में भाती हैं। शायद यही शौक़ उन्हें रईस की ओर खींच लाया होगा। उन्हें कहानी के जो मुख्य बिंदु बताये गए होंगे, उनमें प्रमुख होंगे- आप एक ईमानदार तस्कर हैं, जो हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का साथ देता है, जो मानवता का पक्षधर है, जो अपने कर्म (धंधे) को मानता है वगैराह- वगैराह। कास्टिंग के टाइम उन्हें बताया गया होगा कि नवाज़ भाई हैं पर रोल उनका काफ़ी कम है। बस, यहीं अपने मियां मात खा गए।
रईस बने शाहरुख़ के हाथों खून होते और पुलिस बने नवाज़ुद्दीन को उसके पीछे पड़े देखकर एक बारगी तो ये आभास होने लगा था कि हीरो शाहरुख़ नहीं, नवाज़ हैं। वो तो भला हो स्क्रिप्ट का, कि नवाज़ का ट्रांसफर हो गया और भाईजान को मौका मिल गया कुछ कर दिखाने का। पर क्या कर दिखाने का? एक सीन में वो गरीबों को न्याय दिलाने के लिए भिड़ते हुए दिखाई देते हैं, उसी सीन में पीछे अमिताभ की एक हिट फिल्म का दृश्य चल रहा होता है जिसमें अमिताभ गरीबों को न्याय दिलाने के लिए भिड़े होते हैं। इसका क्या अर्थ हुआ? इस सीन की क्या ज़रूरत थी। इस स्टेज़ पर आकर शाहरुख़ को खुले- आम कॉपी करता दिखाया जाना क्या सिद्ध करता है? यदि रईस के काल को दिखाने के लिए अमिताभ का सीन लिया गया था तो तरस आता है इस सोच पर।
और तरस तो मुझे तब भी आया था जब 9 बजे रात के शो की टिकट देने के लिए मना कर दिया गया क्योंकि सिर्फ तीन ही दर्शक थे। और मज़े की बात ये कि 9.15 की 'क़ाबिल' के लिए 'हाँ' थी क्योंकि वहां ज़्यादा दर्शक थे इसलिये शो चलना था। वो तो जब मैंने हंगामा किया कि हमारी बात कराओ, कैसे नहीं चलेगा शो, एस. आर.के. को पता चलेगा कि क़ाबिल चल रही है और रईस नहीं, तो कितना बुरा लगेगा उसे। तब जाकर उसने कहीं फ़ोन लगाया और हमें टिकट इस शर्त के साथ दिए कि कूपन भी लो, कॉफी और पॉपकॉर्न के, कि कुछ खाओगे- पीओगे भी।
मैंने 500 का नया नोट उसे देते हुए कहा- इतने रईस तो हैं हम भी।😊

Sunday, 22 January 2017

तक़दीर का फंसाना

          छोटे शहर में ऑटो कम, रिक्शाएं ज्यादा होती हैं। रिक्शा चलाने वाले को रिक्शावाला कहा जाता है। रिक्शावाला बचपन से रिक्शावाला नहीं होता। बचपन में वो रिक्शावाले का लड़का होता है। वो अपने बाप से छुपकर रिक्शा पर अपना हाथ साफ़ करता है। तब, जब उसका बाप दोपहर में घर आया हुआ होता है और आराम कर रहा होता है। माँ चिल्लाती है कि पढ़ लिख ले वरना बाप की तरह रिक्शा ही चलाता रह जायेगा। बाप भी उसे पीटता है रिक्शा दीवार में ठुक जाने पर। बाद में जब उसका बाप दारु पीकर कई - कई दिन काम पर नहीं जाता तो उसकी माँ ही उसे कहती है कि जा, रिक्शा ले जा और कुछ कमा कर ला। ये भड़ुआ तो घर पर ही पड़ा रहेगा। कालांतर में यही लड़का अमिताभ बच्चन की तरह मर्द बनता है और रिक्शावाला कहलाता है।

            वो छोटा सा मर्द अपने छोटे से शहर में अपना बड़ा सा रिक्शा संभाल लेता है। रिक्शा सँभालने के बाद ही उसे पता चलता है कि जिस रिक्शा को वो अपनी समझ रहा था वो तो किराये की है। जल्दी ही उसे ये भी ज्ञात हो जाता है कि रिक्शा का किराया भी कई महीनो से उसके मालिक को नहीं दिया गया। वो हड़बड़ा जाता है। बाप से वो कुछ कह नहीं पाता क्योंकि बाप जो होता है वो बाप होता है। वो दारु पीकर पड़ा हो तो भी बाप ही होता है।

              रिक्शा की पैडल मारते - मारते ही वो यह भी जान जाता है कि उसका बाप भरी जवानी में क्यों खांसने लगा था और वक़्त से पहले बूढा क्यों हो गया था । अब उसे यह जानने में दिलचस्पी थी कि उसका बाप घर पर कम पैसे क्यों लाता था। दो - चार पुलिसवालों के अपनत्व से उसे जल्दी ही इस बात की तसल्ली मिल जाती है कि उसकी रिक्शा पर सवारियों का टोटा नहीं रहने वाला। बस, अब उसे किराया चुकाने वाली सवारियों की तलाश थी। 

             तीन साल हो गए थे उसे रिक्शा चलाते। अभी उसकी शादी नहीं हो सकी थी। उसे हैरानी थी कि उसके बाप की उसकी उम्र में शादी कैसे हो गयी थी। जिस हिसाब से वो कमा रहा थाउसे नहीं लगता था कि आगामी तीस सालों में भी उसकी शादी होने की संभावना बनती थी। कमा क्या रहा था, गँवा ज्यादा रहा था।  पैसा, सेहत और उम्र। पैसा उसपर भारी था और सेहत पैसों पर। दोनों मिलकर उसकी उम्र पर भारी पड़ रहे थे। 

               गलती से एक बार उसकी शादी हो गयी। कोई नहीं रोक सका उसकी शादी को। भगवान की यही मर्ज़ी थी। रिश्ता भी तो भगवानदास ने ही कराया था। लड़की की माँ उसे कहीं मिल गयी थी। वो अपनी लड़की के लिए परेशान थी। इधर इसकी माँ भी परेशान थी। दोनों ने सोचा कि जब परेशान ही होना है तो साथ मिलकर परेशान क्यों न हों। फिर दोनों मिलकर भगवान को परेशान करेंगे। भगवानदास से उनकी दुश्मनी जानी जाती थी। 

              वो बहुत खुश था। वहीजो पहले रिक्शावाले का लड़का कहलाता था और बाद में खुद रिक्शावाला कहलाने लगा था। उसकी शादी एक मंदिर में हुई जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो शामिल हुए थे। लड़की की माँ और उसका रिक्शावाला बाप भी था। ख़ुशी की बात यह कि वो लड़की भी थी जिससे उसकी शादी तय हुई थी। लड़की के बाप ने उसे एक कोने में ले जाकर उसके हाथ में लिवर दुरुस्त रखने की एक शीशी थमाई और दूसरे हाथ से उसकी जेब में बियर की एक छोटी सी बोतल चुपके से ये कहते हुए डाल दी कि रिक्शा खींचने से लिवर और किडनी पर असर पड़ता है और ये दोनों दवाइयां नियमित रूप से लेने से उनपर असर काम पड़ेगा। 

                रिक्शावाले लड़के को रात बिताने के लिए वही खोली नसीब हुई जो उसके बाप रिक्शावाले को और उसके भी पहले उसके पिता को बरसों पहले नसीब हुई थी और जहाँ वो माँ के साथ रहता आया था। माँ ने खुश होकर अपनी चारपाई भी नए जोड़े के हवाले कर दी थी और खुद वो बाहर अपने शराबी पति के साथ रात काटने के लिए इस शर्त पर चली गयी थी कि वो उस रात शराब नहीं पियेगा। ख़सम ने भी शर्त की लाज़ रखी और उस रात शराब न पीकर वो बियर पी जो उसे उसके पुत्र की जेब से थोड़ी देर पहले हासिल हुई थी। 

                  उस रात अपने रिक्शावाले भइया ने अपनी नयी नवेली का घूंघट उठाया तो नवेली ने मुँह दिखाई में माँगा कि अगर लड़का हुआ तो एक अच्छी सी रिक्शा दिलाएगा और लड़की हुई तो एक अच्छे से रिक्शावाले के साथ उसका ब्याह रचाएगा। 

                    और अपने भइया ने मुस्कुराकर हाँ कर दी। 

Friday, 1 November 2013

एक गरीब की दीपावली

                           
यह एक गरीब था और दीपावली मनाना चाहता था। किन्तु उसे दुःख था कि वह गरीब है और दीपावली धूमधाम से नहीं मना सकता। वह अपनी गरीबी पर इस हद तक शर्मिन्दा था कि एक बार तो उसने यह तय कर लिया कि वह दीपावली नहीं मनायेगा। किन्तु दूसरे क्षण उसने सोचा कि यदि वह दीपावली नहीं मनायेगा तो आसपास वाले क्या सोचेंगे।वे कहेंगे कि जब वह अपनी कन्या का प्रवेश एक महंगे और शहर के प्रतिष्ठित विद्यालय में करा सकता है तो दीपावली धूमधाम से क्यों नहीं मना सकता। वह इसका उत्तर सोचने लगा। थोड़ी देर में उसने जबाव तैयार कर लिया। जवाब यह था कि महंगे और प्रतिष्ठित स्कूल में दाखिला दिलाने के बाद उसके पास इतने पैसे नहीं बचे थे कि वह दीपावली धूमधाम से मना सके। पर जब जवाब उसे जंचा नहीं तब वह और  चीजों के भाव मालूम करने बाजार चला गया।
उसने खील, बताशों, खिलौनों से लेकर मिठाईयों-फ्रूटों और ड्राईफ्रूटों के बाज़ार भाव मालूम किये। हर चीज़ पिछले वर्ष के मुकाबले महंगी हो गयी थी। दाम लगभग ड्योढ़े हो गये थे। केवल काजू के भाव में ही वृद्धि इतनी अधिक नहीं हुयी थी जितना उसका अनुमान था। अतः उसने अनमने भाव से काजू के पैकेट्स खरीदे और घर ले आया। घर आकर उसने पिछले वर्ष का सूची-पत्र निकाला। कुछ पुराने नामों को काटा और नये नामों को जोड़ा। व्यक्तित्व के भार के अनुसार में उसने डिब्बों के भारों को रखा और चिटें चिपका दीं। इसके बाद वह निश्चित हो गया और पड़कर सो गया।
किन्तु चिन्ता ने उसे जगा दिया। काजुओं में उसका खर्चा बहुत हो गया था और वह गरीब था। उसने सोचा, अभी भी कुछ नाम ऐसे रह गये थे जिन्हें दीपावली के शुभअवसर पर काजू भेजे जा सकते थे। किन्तु वह गरीब था इसलिये काजू के और डिब्बे अफोर्ड नहीं कर सकता था। वह रात भर सोचता रहा कि कल बच्चे पटाखे, फुलझडि़याँ और राकेट माँगेगे तो वह क्या जवाब देगा। इसी चिन्ता में सुबह हो गयी।
सुबह बच्चों ने उसके हाथ में लिस्ट दे दी। लिस्ट में नाना प्रकार के पटाखों के नाम थे जिनका नाम वह अब से पूर्व बिल्कुल नहीं जानता था। कुछ पटाखों के नाम तो अन्तरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों और ईराक-ईरान युद्ध में प्रयोग किये गये प्रक्षेपास्त्रों से इतने अधिक मिलते थे कि एक बार तो उसे भय लगा कि अमेरिका को पता चल गया तो कहीं वह नाराज़ न हो जाये। वह कमाता तो बहुत था पर डरता भी उसी अनुपात में था। ज्यादा कमाने वाले ज्यादा डरते क्यों है? उसने सोचा पर दूसरे ही क्षण वह इस प्रश्न पर विचार करने लगा कि ज्यादा कमाने के बावजूद वह गरीब क्यों है।बहरहाल लिस्ट लेकर वह बाजार गया और ख्ूाब सारी मिसाइलें व एटम बम खरीदे। एक अनुमान के अनुसार उसने अपनी आय का साढ़े बारह प्रतिशत इन आयुधों पर व्यय कर दिया था और वह कई मुल्कों के रक्षा बजट के प्रतिशत से कहीं अधिक था। जब वह अपनी नई कार पर इन एटम बमों और मिसाइलों को लादकर ला रहा था तो कार की पिछली सींट व डिक्की पूरी तरह भरी हुयी थी और कार उसे किसी टैंक से कम प्रतीत नहीं हो रही थी। कार को ड्राईव करते वक्त उसे ऐसा लगा कि वह थलसेना का कोई बड़ा अधिकारी है और दुश्मनों के छक्के छुड़ाने जा रहा है।
लेकिन थोड़ी ही देर में उसे याद आया कि गरीब होने के बावजूद इस मद में वह काफी खर्चा कर चुका है और वह सोचकर वह फिर परेशान हो गया।
घर लौटा तो उसकी पत्नी ने याद दिलाया कि अभी बंगले की सजावट नहीं हुयी है और जब तक बंगले को सजाया नहीं जायेगा, दीपावली मनाने में खासी दिक्कतें आयेगी। उसने भी सोचा कि गरीब से गरीब अपनी दीपावली अच्छी मनाना चाहता है। वह भी चूँकि गरीब है इसलिये दीपावली जरूर अच्छी मनायेगा। उसने सजावट वाले को टेलीफोन किया और उससे कहा कि वह उसके बंगले की सजावट इस तरह करे कि वह किसी राजा के महल की तरह लगे। उसने यह भी निर्देश दिया कि ऐसी सजावट किसी और बंगले की नहीं होनी चाहिये, इसके बाद उसने रिसीवर रख दिया।
हालांकि वह बंगले को ताजमहल बनाना चाहता था पर इसमें पैसे बहुत लगते। इतने पैसे उसके पास नहीं थे। वह गरीब जो था। इसलिये उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
दीपावली के बाद उसने हिसाब लगाया तो उसे हैरान हो जाना पड़ा कि उसके कई हजार रूपये दीपावली की भेंट गये थे। उसे बहुत दुख हुआ।
वह दुखी इसलिये हुआ क्योंकि वह गरीब था और दीपावली धूमधाम से नहीं मना सका था।



 

Thursday, 15 August 2013

डेमोक्रेसी का डेकोरम

कल स्वतन्त्रता दिवस है। यह बहस का विषय हो नहीं सकता। इस मामले में बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं है। और फिर बहस तो छोटे बच्चों का विषय है। 
जब तिरंगे, बिकने के लिए दुकानों में आ गये हों और बच्चों को यह कह दिया गया हो कि सभी बच्चे अलसुबह खाली पेट, झंडा लेकर कल स्कूल में उपस्थित हों तो अब तो शंका की गंुजायश ही नहीं बचती कि कल स्वतंत्रता दिवस है। 
हम जिसका इंतजार नहीं कर रहे थे वह दिन कल फिर आ जायेगा। बच्चों को स्कूल जाना पड़ेगा। सच मानिये, जब से मिड डे मील, लास्ट डे मील सिद्ध हुआ है तभी से बच्चों का पेट स्कूल जाने के नाम पर दर्द करने लगा है। स्वतंत्रता दिवस की सार्थकता क्या है, यह बच्चे क्या जाने। उन्हें लगता है कि आज फिर मिड डे मील भकोसना पड़ेगा। वे इसे अपने मील से लिंक्ड कर रहे हैं। वे बच्चे हैं। नहीं जानते कि किसको किससे लिंक्ड करना चाहिये। लिंक्ड करने की भी एक कला होती है। यह कला कल-आजकल में नहीं सीखी जा सकती। बताइये, पेट को स्कूल से लिंक्ड कर रहे हैं। उन्हें पेट को पेस्टीसाइड से लिंक्ड करना चाहिए। नहीं?
बच्चों का अपना सौन्दर्यशास्त्र है जिसमें अर्थशास्त्र नहीं आता। उनके सौन्दर्यशास्त्र में राजनीति भी नहीं आती। वे तो बस मील के लिए स्कूल जाते हैं। गरीब बच्चा जब-जब स्कूल जाता है तो ‘मील’ के लिए ही स्कूल जाता है और अध्यापकों से भी मिल आता है। ईश्वर जानता है कि गरीब बच्चा जब-जब स्कूल जाता है तो पाालटिक्स के पेट में दर्द उत्पन्न हो जाता है। जहां सारी कायनात उसे स्कूल भेजने में जोर लगाती है वहीं वह यह बेचारा छोटा सा, प्यारा सा, नन्हा सा होमो सेपियन्स अपना सारा जोर भूख मिटाने में लगाता है। बिना यह सोचे-समझे कि जो कुछ वह अपने डाइजेस्टिव सिस्टम की डिमांड पर खा रहा है वह सब कुछ उस सिस्टम की देन है जिसपर किसी का जोर नहीं। खुद सिस्टम बनाने वाले का भी नहीं। सिस्टम की नर्वसनेस देखिए, उसका नर्वस सिस्टम क्या देखते हैं।
पेट खाली हो और हाथ में तिरंगा हो तब भी देश के लिए भूखे-प्यासे रहकर मर मिटने का जज्बा पैदा हो सकता है। तब भी मुख से भारत माता की जय का नारा निकल सकता है। लेकिन ऐसी बहादुर मौत कौन चाहेगा जो स्कूल के बरामदे में जहरीला खाना खाने से मिलती हो। विचार है कि जब पेट खाली हो तो ज्ञान से पेट नहीं भरता। उत्तम विचार यह है कि पहले पेट का ही राम नाम सत्य करें ताकि न हो बांस और न बजे ससुरी बांसुरी।
बताइये, जिसे मील का पत्थर बनना था, उसे मिड डे मील खाकर मरना पड़ा। हास्य नहीं, हास्यास्पदता देखिए।
इस स्वतं़त्रता दिवस पर सरकारी स्कूल जाने वाले कम से कम कितने कर्णधारों को इस बात की गारन्टी दी जा सकती है कि उन्हें भविष्य में कीड़ों की तरह पेस्टीसाइड पीकर नहीं मरना पडे़गा और डेमाक्रेसी का डेकोरम बाकायदा मेन्टेन किया जायेगा। 
मी लार्ड! बच्चों को मरने से पूर्व कम से कम उतनी उम्र तो बख्श दी जाए, जितनी आजाद भारत की है। 
दैट्स आॅल मी लाॅर्ड।