Friday 23 July 2010

अपनी दुनिया का पागल

हर आदमी कहीं न कहीं खोया हुआ है। हम उसे कहीं पाते भी हैं तो खोया हुआ ही पाते हैं। कोई पैसा कमाने में खोया है तो कोई गंवाने में। मेरे एक मित्र शेयर मार्केट में ही खोये हुए हैं। जीवन का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने शेयरों के उठने और गिरने के नाम कर दिया। इस चक्कर में वो जीवन में कई बार गिरे और कई बार उठे। आज भी वे सुबह शेयर बाजार के उठने से पूर्व ही उठ जाते हैं तथा शाम को शेयर बाजार के  गिरने पर बिस्तर पर इस लक्ष्य के साथ गिरते हैं कि इंशाअल्लाह कल सुबह फिर शेयर बाजार के साथ ही उठेंगे।
एक अन्य परिचित जमीनें खरीदनें में ही खोये हुए हैं। खरीदते हैं, बेचते हैं, खरीदते हैं, बेचते हैं। सुना है उन्होंने अपने लिये दो गज जमीन भी खरीद ली है जिसे वे जल्दी ही अपनी पत्नी को अच्छे दामों पर रीसेल करने जा रहे हैं।
एक अन्य परिचित दारू की बोतल के साथ खोये हुए हैं। बोतल के साथ ही वे उठते हैं तथा बोतल के साथ ही सोते हैं। ऑफिस भी बोतल को साथ ही लेकर जाते हैं। हाथ में फाइलें होती हैं, लंच बाक्स होता है, और होती है दारू की बोतल। वहां बैठकर पूरा लुत्फ उठाते हैं। साहब ने फाइल पास कर दी तो खुशी के दो घूंट मार लिये और फाइल पर विपरीत टिप्पणी कर दी तो गम के चार घूँट 
यानी हर आदमी का अपना दीन और अपना निजी ईमान होता है और वह अपनी ही दुनिया में खोया रहता है। लेखक है तो उपन्यास में और ई-लेखक है तो ब्लॉगिंग में। कवि है तो कविता में और अकवि है तो अपनी निजी 'कविता' में।
गर्ज यह है कि खोये हुए आदमी की अपनी ही दुनिया होती है। उसकी यह दुनिया उसे जीने की राह दिखाती है। वह अपनी ही दुनिया में पागल होता है, अपनी ही दुनिया का पागल होता है।
पागल आदमी के भी अनेक प्रकार होते हैं। कोई एक नम्बर का पागल होता है तो कोई परले दरजे का। कुछ पागल आपको सडकों पर घूमते और मारे-मारे फिरते दिखाई देंगे तो कुछ का स्तर इतना ऊंचा होता है कि उन्हें अपने इस विशेषण को मेन्टेन करने की पगार भी मिलती है और कुर्सी भी।
पागल लोग लोक में बिखरे पडे़ हैं। उनकी अपनी दुनिया होती है। लेकिन उनकी दुनिया से उन्हें दूर करने का प्रयास क्यों किया जाये? उनकी दुनिया दूर होने का अर्थ है उनसे उनका जीवन छीन लेना। यह उनकी जीवन का फलसफा होता है।अब पागलों की तरह पागलों पर लिखना पागलपन नहीं तो और क्या है