Sunday 28 October 2012

अब लीजिए भी चचा !!



तो अब यह तय हो गया है कि घूसखोरी के बिना कोई चारा नहीं। लाचारी का नाम है घूस। आचार भी लाचार हो गये है इसके सामने। व्यवहार में घुस आयी है यह। आचार में टंकित हो गयी है इसकी छवि। मुस्कुराती हुयी। जैसे अभी-अभी नहा धोकर पूछने आयी हो गीले बालों को झटकती हुयी, कि कुछ लेंगे? और सम्मोहित सा व्यक्ति स्वीकारोक्ति में सिर को हिला भर देता है, जानते-बूझते हुये भी कि यह सम्मोहिनी है, अपने रूप-जाल में फंसा रही है, वह उसके जाल में फंस जाता है।
घूसखोरी कर्तव्य बन गयी है। आदमी सुबह तैयार होकर दफ्तर पहुँचता है, जरूरी फाइलें निबटाता है, लंच लेता है, घूस लेता है, और शाम को घर वापस लौट आता है। जो सज्जन दफ्तर में इस काम को नहीं कर पाते है, वे घर पर इस पवित्र कार्य को निबटाते हैं। आजकल इस कार्य को शोरूमों में किया जाने लगा है। लेने वाले की पसंद के अनुसार। देने वाले को तो देनी ही है।
नया-नया अधिकारी नये-नये शहर में स्थानान्तरित होकर आता है। अपरिचित शहर, अपरिचित शहरवासी, अपरिचित व्यवहार। सबसे बड़ी बात यह कि घूस का अपरिचित ढंग। पता नहीं लोगों के रीतिरिवाज कैसे हो। देते भी हैं या नहीं। लेकिन ऐसा भी कहीं होता है। लेने वाले भी हैं तो देने वाले भी हैं। सभी की पूँछ कहीं न कहीं दबी है। उसे उठाये रखने के लिये चारा डालना अति आवश्यक है। एक बकरी बाँधी जाती है, सत्ता के गलियारे में। शहरवाले अपने गले में ढोल लेकर हांका लगाते है जिसकी आवाज सत्ता के केन्द्र में बैठे हमारे अधिनायक ही सुन पाते है। सत्ता के मद में चूर ये अधिनायक भागते-भागते आते हैं और चारे का उपभोग कर शहर को उपकृत करते है। शहर भी खुश उसके अधिनायक भी खुश। लाचारी मिनटों में सदाचार में बदल जाती है। पुराना चोला उतर जाता है, नया धारण कर लिया जाता है। अभिवादन के तौर बदल जाते हैं, मुस्कुराने के तरीके बदल जाते हैं, संवेदनायें बदल जाती हैं, शर्म का पारा बदल जाते हैं, (अपना) उल्लू सीधा हो जाता है, साहब का मिज़ाज बदल जाता है। सब ससुरी एक चीज़ के लिये-घूस के लिये। बेबाक सी, बेताब सी, घूस के लिये।
वर्षों के तप के पश्चात घूसखोरी को लक्ष्य प्राप्त हुआ है। यानी इसे ईश्वर के दर्शन हुये है। अब यह प्रचंड वेग से ऊपर से नीचे तक फैल गयी है। दांये-बायें, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे सभी दिशाओं में। जिन्हें कभी दिशाओं का भान नहीं था, उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। दिव्यदृष्टि वो, जो समय पर मिले। यहाँ तो मामला ही दृष्टियों का है। एक दिशा के लिये एक दृष्टि। चहुँ दिशाओं हेतु चहुँ ओर दृष्टियाँ। किन्तु आश्चर्य! कि सभी दृष्टियाँ एक ही दिशा की ओर लगी हैं। वह दिशाजो सभी दिशाओं से मिलकर बनी है। सभी ने इस दिशा के जन्म में, इसके निर्माण में कुछ न कुछ योगदान दिया जिसका प्रभाव सभी ने एकमत से स्वीकारा। जिसका प्रभावमण्डल जमकर छितरा। जिसके आलोक में सभी फले-फूले। प्रकान्ड पंडितों ने जिसे रिश्वत का नामकरण दिया। अनुवादकों ने विभिन्न भाषाओं में जिसके अनुवाद किये और यह अदना सा लेखक जिसे घूस के नाम से जानता हैं।
तो साथियों, तालियों के साथ इसका स्वागत कीजिये। अपनी-अपनी सीटों पर खड़े हो जाइये। बड़े साहब के साथ जो आ रही है, छोटे साहब के साथ जो जा रही है, बड़े बाबू के साथ जो गुनगुना रही है, छोटे बाबू के साथ जो गा रही है, चपड़ासी का मन जो बहला रही है, वह और कोई नहीं आपकी अपनी, तेरी-मेरी और उसकी, गोरी/चिट्टी, गोल-मटोल घूस ही है।
अजी साहब, ले लीजिये। हमें मालूम है आप नहीं लेते। पर थोड़ी तो लीजिये।अपने लिये न सही, बच्चों के लिये लीजिये। भाभी जी के लिये लीजिये। अजी लीजिये तो सही। अब तो सब चलता है जी। इसके बिना भी कहीं कुछ होता है साहब। अब तो इसे स्वीकृत कर ही देना चाहिये। अब तो दफ्तरों में इसकी फोटो टांग ही देनी चाहिये। कार्यालयों में इसका आदेश निकलवा देना चाहिये। मेज के ऊपर से न सही तो नीचे से ही लीजिये। चलिये अब उठाइये भी। इतना संकोच न कीजिये। कैश नहीं तो काइन्ड लीजिये। ओपन नहीं तो ब्लाइन्ड ही लीजिये। अब लीजिये भी चचा!


Friday 26 October 2012

सपने में आये अरविन्द केजरीवाल साहब!!


पत्नी जी ने रात को सपना देखा. और सपने में अरविन्द केजरीवाल साहब को देखा. सुबह उठते ही बोली कि आओ, पहले सपना सुनो, चाय बाद में बनाना. ऐसा सुअवसर खाकसार को कभी-कभी ही मिलता है जब पत्नी कहती है कि चाय अभी नहीं बनाओ और पास आकर बैठ जाओ. अतः मैं चुपचाप आकर उनके निकट बैठ गया.  अरविन्द केजरीवाल साहब अत्यंत चौकस व्यक्तितत्व के धनी हैं और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो उनका चौकन्नापन देखते ही बनता है. केजरीवाल साहब को पहले केजरीवाल कहता था लेकिन पत्नी के आग्रह पर केजरीवाल जी कहना प्रारंभ कर दिया. कुछ समय तक केजरीवाल जी ही चला लेकिन जल्दी ही पत्नी का पैगाम एक दिन घर से दफ्तर में फोन के माध्यम से आया कि अब आप केजरीवाल साहब कहना प्रारंभ कर दीजिए. पत्नी जी को जब कोई काम निकलवाना होता है तो लीजिए/दीजिए कहना आरम्भ कर देती है जो कि अत्यंत कर्णप्रिय होता है अतः में भी उनकी सलाहों पर तत्काल अमल कर देना अपना पहला फ़र्ज़ समझता हूँ.
तो वर्तमान स्थिति यह थी कि पत्नी जी जो थीं वो सोफे पर सामने बैठी थी और खाकसार उनके समक्ष इस तरह बैठा था मानो भ्रष्टाचार के केजरीवाल-आरोप हम पर सिद्ध हो गए हों. इधर दफ्तर का समय हो चला था, अभी शेव भी बनानी थी और पत्नी जी केजरीवाल रुपी उस्तरा छोड़ने को तैयार नहीं थीं. ‘क्या हुआ, जल्दी कहो’ कहने की हिम्मत ना तो पहले थी और ना अब है. और अब तो मामला ही केजरीवाल साहब का था जिसे सुलझाने में नामालूम कितना वक़्त लगना था. पत्नी जी के मुंह से बोल फूटे तो सुनकर हम फूटें. देर से दफ्तर पंहुचेंगे तो क्या कारण बताएंगे- घर पर केजरीवाल साहब आये थे या सपने में आये थे, इसलिए लेट हो गया. आज की कैजुअल लीव लेने पर भी विचार् किया तो हाथों-हाथ इस समस्या ने भी दस्तक दे दी कि ‘रीज़न’ में क्या लिखूंगा- पत्नी जी की तबियत खराब या फिर पत्नी जी के सपने के कारण मेरी तबियत खराब.
आखिरकार आकाशवाणी हुयी. पत्नी जी के मुखारविंद से बोल फूटे- ‘रात सपने में देखा कि केजरीवाल साहब ने आपको टारगेट करने का मन बना लिया है.’ सुनकर मैं नीचे गिरा जैसे कभी सत्यम के शेयर्स गिरे थे.   मैंने ऐसा क्या कर दिया जो केजरीवाल साहब ने मेरी सार्वजानिक छवि को उपकृत करने का मन बना लिया. क्या शेष सभी के भ्रष्टाचार की पोल खोली जा चुकी है जो मेरा नंबर आ गया. मैं तो एक छोटे से शहर में रहता हूँ जिसे साल में सिर्फ ६ सिलेंडर सबसिडी के साथ मिलते हैं, मेरी गैस क्यों निकालते हो भाई?, क्या दिल्ली-मुंबई वालों का अभिनन्दन करने का सद्कार्य पूर्ण हो गया जो मुझ जैसे गंवार को सम्मानित करने का मन बना लिया. हैरानी की बात यह थी कि केजरीवाल साहब उस कमजोर व्यक्ति को ललकारने का मन बना रहे थे जो कि खुद पत्नी के ललकारने हेतु अभिशप्त और भयभीत है. क्या उन्हें लगता है कि महीने में दो-चार पैसे खा लेना भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है. टी.ए. बिलों में चार सौ-पांच सौ का हेर-फेर करना भ्रष्टाचार कब से हो गया, अंकल? मैं तो रहता भी ऐसे मोहल्ले में हूँ जिसमे भ्रष्टाचार भी सब्जी की रेहडी के स्तर का होता है. महिला ने दो किलो आलू लिए और दो मिर्ची अपनी ओर खिसका लीं, वाले स्तर का. उस स्तर का नहीं कि पांच सौ ग्राम बैंगन तुलवाये और सात सौ ग्राम का कद्दू पार कर लिया.
पत्नी जी कहती हैं कि आज की तारीख में भ्रष्टाचार कौन नहीं करता, वही नहीं करता जिसे मौका नहीं मिलता. पत्नी जी भ्रष्टाचार की समर्थक नहीं है लेकिन घर पर चाय मुझे बनानी पड़ती है. यह भ्रष्टाचार है लेकिन पत्नी जी नहीं मानती. दफ्तर में जो चाय आती है उसका भुगतान हम कर्मचारी रो-रोकर कर भी नहीं करते हैं. पत्नी कहती है कि यह भ्रष्टाचार है, लेकिन मेरा मन नहीं मानता. हमारे बीच यही चिखचिख चलती रहती है.
जिस दिन की यह घटना है उस दिन मैं दफ्तर नहीं गया. कैसे जाता? जिसको केजरीवाल साहब टारगेट बना लेते हैं वह कहीं जाकर आराम से सो सकता है भला? जिन लोगों ने वास्तव में पैसा खाकर डकार भी नहीं मारी है उनका क्या हश्र होता होगा!

Wednesday 21 March 2012

उनकी योजना


पूर्ण गंभीरता और ईमानदारी के साथ उन्होंने मुझे सूचना दी कि वे अब और सहन नहीं कर सकते तथा शीघ्र ही रिश्वत लेना प्रारम्भ कर रहे हैं।
जिस समय और जिस क्षण वे रिश्वत काया में प्रवेश करने की सूचना मुझे प्रदान कर रहे थे, आप सोच भी नहीं सकते कि कितने दुखी थे। सम्भवतः यह दुख उन्हें विलम्ब से इस 'प्लान' को लेने पर था। उनसे पूर्व उनके समस्त सगे-सम्बन्धियों तथा मित्र इस प्लान को ले चुके थे तथा अच्छी-खासी प्रीमियम प्राप्त कर रहे थे।
वे एक बडे़ सरकारी विभाग में अधिकारी थे और जिस लक्ष्य की घोषणा वे अब कर रहे थे, नियमानुसार उन्हें तभी कर देनी थी, जब उन्होंने इस पद पर अपनी योगदान आखया प्रस्तुत की थी। उनके जैसे सम्मानित अधिकारी से ऐसी अपेक्षा की जाती थी। उनके नियन्त्रण में आने वाले समस्त कर्मचारी जब पूर्ण निष्ठा के साथ रिश्वत लेने के अपने दायित्व को बरसों से निभा रहे थे तो उनपर ही ऐसी कौन सी विपदा टपकी थी जो वे अब तक लोकतंत्र की इस कामयाब योजना से विमुख चल रहे थे।

मैंने उनके चेहरे की आरे ध्यान से देखा। जब वे कह रहे थे तो कह रहे थे। उनके कहे का अर्थ स्पष्ट था। कल से वे रिश्वत लेना आरम्भ करने वाले थे। अब कोई अन्ना या लोकपाल उनके रास्ते में नहीं आने वाला था। आता भी तो वे उसे लांघने का हौसला अब रखते थे। कम से कम उनकी मुखमुद्रा से तो यही प्रतीत होता था।
उन्होंने अब तक इस रिच्च्वती हवन में सामग्री क्यों नहीं डाली थी, इस बारे में इतिहास मौन था। वे स्वयं मौन थे। हमें भी मौन रहना था। इसे प्रारम्भ करने के पीछे उनकी क्या विवशता थी, यह कोई रिश्वतखोर ही बतला सकता था।
मैंने घड़ी देखी। शाम के पांच बजने को थे। पता नहीं, वे आज ही इस पावन कार्य को प्रारम्भ करेंगे अथवा इस मैटर को कल के मुखय एजेण्डे में रखेंगे। मैं सोच रहा था। ऑफिस बंद होने के बाद वे किसी अन्य स्थान पर सोमरस का पान करने जाते थे। हो सकता है कि अपनी अन्य घोद्गाणाओं की भांति वे इसकी भी उद्‌घोद्गाणा  वहीं से करें। और इस योजना का भी अन्ततः वही हश्र हो, जो उनकी अन्य योजनाओं को हुआ।
बहरहाल, वे रिश्वत लेना प्रारम्भ करने वाले हैं, इस पर हुर्रा..ऽ..ऽ कहूं या ऊह..ला...ला.., कुछ समझ नहीं आ रहा है । हां, यह जरूर बताना चाहूंगा कि जैसे ही मेरी निगाह उनके ललाट पर गयी, उस पर अंग्रेजी का v बना हुआ था।