Thursday 15 August 2013

डेमोक्रेसी का डेकोरम

कल स्वतन्त्रता दिवस है। यह बहस का विषय हो नहीं सकता। इस मामले में बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं है। और फिर बहस तो छोटे बच्चों का विषय है। 
जब तिरंगे, बिकने के लिए दुकानों में आ गये हों और बच्चों को यह कह दिया गया हो कि सभी बच्चे अलसुबह खाली पेट, झंडा लेकर कल स्कूल में उपस्थित हों तो अब तो शंका की गंुजायश ही नहीं बचती कि कल स्वतंत्रता दिवस है। 
हम जिसका इंतजार नहीं कर रहे थे वह दिन कल फिर आ जायेगा। बच्चों को स्कूल जाना पड़ेगा। सच मानिये, जब से मिड डे मील, लास्ट डे मील सिद्ध हुआ है तभी से बच्चों का पेट स्कूल जाने के नाम पर दर्द करने लगा है। स्वतंत्रता दिवस की सार्थकता क्या है, यह बच्चे क्या जाने। उन्हें लगता है कि आज फिर मिड डे मील भकोसना पड़ेगा। वे इसे अपने मील से लिंक्ड कर रहे हैं। वे बच्चे हैं। नहीं जानते कि किसको किससे लिंक्ड करना चाहिये। लिंक्ड करने की भी एक कला होती है। यह कला कल-आजकल में नहीं सीखी जा सकती। बताइये, पेट को स्कूल से लिंक्ड कर रहे हैं। उन्हें पेट को पेस्टीसाइड से लिंक्ड करना चाहिए। नहीं?
बच्चों का अपना सौन्दर्यशास्त्र है जिसमें अर्थशास्त्र नहीं आता। उनके सौन्दर्यशास्त्र में राजनीति भी नहीं आती। वे तो बस मील के लिए स्कूल जाते हैं। गरीब बच्चा जब-जब स्कूल जाता है तो ‘मील’ के लिए ही स्कूल जाता है और अध्यापकों से भी मिल आता है। ईश्वर जानता है कि गरीब बच्चा जब-जब स्कूल जाता है तो पाालटिक्स के पेट में दर्द उत्पन्न हो जाता है। जहां सारी कायनात उसे स्कूल भेजने में जोर लगाती है वहीं वह यह बेचारा छोटा सा, प्यारा सा, नन्हा सा होमो सेपियन्स अपना सारा जोर भूख मिटाने में लगाता है। बिना यह सोचे-समझे कि जो कुछ वह अपने डाइजेस्टिव सिस्टम की डिमांड पर खा रहा है वह सब कुछ उस सिस्टम की देन है जिसपर किसी का जोर नहीं। खुद सिस्टम बनाने वाले का भी नहीं। सिस्टम की नर्वसनेस देखिए, उसका नर्वस सिस्टम क्या देखते हैं।
पेट खाली हो और हाथ में तिरंगा हो तब भी देश के लिए भूखे-प्यासे रहकर मर मिटने का जज्बा पैदा हो सकता है। तब भी मुख से भारत माता की जय का नारा निकल सकता है। लेकिन ऐसी बहादुर मौत कौन चाहेगा जो स्कूल के बरामदे में जहरीला खाना खाने से मिलती हो। विचार है कि जब पेट खाली हो तो ज्ञान से पेट नहीं भरता। उत्तम विचार यह है कि पहले पेट का ही राम नाम सत्य करें ताकि न हो बांस और न बजे ससुरी बांसुरी।
बताइये, जिसे मील का पत्थर बनना था, उसे मिड डे मील खाकर मरना पड़ा। हास्य नहीं, हास्यास्पदता देखिए।
इस स्वतं़त्रता दिवस पर सरकारी स्कूल जाने वाले कम से कम कितने कर्णधारों को इस बात की गारन्टी दी जा सकती है कि उन्हें भविष्य में कीड़ों की तरह पेस्टीसाइड पीकर नहीं मरना पडे़गा और डेमाक्रेसी का डेकोरम बाकायदा मेन्टेन किया जायेगा। 
मी लार्ड! बच्चों को मरने से पूर्व कम से कम उतनी उम्र तो बख्श दी जाए, जितनी आजाद भारत की है। 
दैट्स आॅल मी लाॅर्ड।