Tuesday 7 March 2017

महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति

महिलायें लोकतांत्रिक राष्ट्र की सबसे सुन्दर वस्तु हैं इसलिये इन पर राष्ट्रीय सहमति बनानी अत्यन्त आवश्यक है। एक बार राष्ट्रीय सहमति का ठप्पा लग गया तो फिर महिलाओं के साथ कहीं भी कुछ भी किया जा सकता है और कोई भी जीवित व्यक्ति/पार्टी विरोध कारगर नहीं होगा।
यूँ महिलाओं के लिये महिलाओं के विरूद्ध अभी भी काफी कुछ पुरूषों द्वारा किया जा रहा है। मसलन, वर्ष में एक दिन महिला-दिवस के रूप में मनाया जाता है उस दिन जहाँ सरकारी और संस्थागत तौर पर कई कार्यक्रम सम्पन्न होते हैं वहीं ठोक उसी दिन गैर सरकारी और व्यक्तिगत तौर पर महिलाओं का मानमर्दन/क्रियाक्रम सम्पन्न किया जाता है और इस धार्मिक अनुष्ठान में निर्धन और सम्पन्न दोनों प्रकार के पुरूष बराबरी से हिस्सा लेते हैं।
साहित्य जगत में महिलाओं पर काफी कुछ लिखा गया है और वर्तमान में भी कई जागरूक सम्पादक, महिलाओं पर अपनी-अपनी पत्रिकाओं के विशेषांक निकाल रहे है जो पूरी/अपूरी तरह महिलाओं की निजी समस्याओं और कभी-कभी निजी अंगों पर केन्द्रित होते हैं। इन पत्रिकाओं में लेखिकाओं के लेख भी छपते हैं जिनकी कोशिश यह रहती है कि औरतों की ज्यादा से ज्यादा समस्यायें पाठकों के समक्ष रखी जायें किन्तु उनका निदान पाठकों पर और राष्ट्र पर छोड़ दिया जाये।
मैं चूंकि महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति बनाने के इस भव्य आयोजन में संयोजक का गैर ज़िम्मेदाराना कर्तव्य निभा रहा हूँ इसलिये सबसे पहले मेरा यह दायित्व बनता है कि मैं अपने मान्य विचार आप लोगों के समक्ष रखूँ।
‘साथियों, चूँकि इस लेख को पढ़ने और पढ़कर समझने वाले ज़्यादातर मित्र पुरूष ही हैं और प्रत्येक के घर में एक ना एक अबला स्त्री होती है अतः क्यों न इस राष्ट्रीय सहमति की शुरूआत घर से ही की जाये। घर में पायी जाने वाली महिला चाहे वह बीवी हो, माँ हो या बहिन, उसे इस बात की कड़ी हिदायत दे देनी चाहिये कि वह वस्त्रों में क्या पहिने और क्या न पहिने। तकनीकी शब्दावली में उस पर ‘ड्रेस कोड’ तत्काल प्रभाव से लागू कर देना चाहिये। पति लोग अपनी पत्नी को साड़ी न बांधने के निर्देश दे सकते है क्योंकि साड़ी एक यौ नोत्तेजक पोशाक है जिसे बांधकर शरीर के मध्य भाग की नुमाइश होती है। अतः सलवाज कमीज पहनें। कमीज का डिजाइन और उसकी कटिंग पति द्वारा अभिप्रमाणित हो। कड़ाई पेट से ऊपर न हो और गला, ज्यादा नीचा न हो। आस्तीन कुहनी से ऊपर बिल्कुल न जाने पाये क्योंकि इससे मित्रों से खतरा रहता है और पत्नी निज़ी नहीं रहने पाती।
युवा अपनी बहिनों को और वृद्ध अपनी बेटियों को जींस न पहिनने दें। जींस एक पाश्चात्य पोशाक है और यह दूसरे को बहिन-बेटियों पर ही फबती है अपनी पर नहीं।
तेजी से बढ़ता बच्चा लोग यह खेल अपनी-अपनी माँओं पर खेल सकते हैं। वे क्या पहिन-ओढ़ रही हैं इस पर गहरी नज़र रखें। बाप से चुगली करें और माँ को मनपसंद कपड़े पहिनने से रोकें। किन्तु तारिकाओं के ग्लैमरस् पोस्टर्स इकट्ठें करें और फिल्में खूब देखें।
किसी भी मुद्दे पर राष्ट्रीय सहमति के लिये आमजनों का सहयोग परम् आवश्यक है और अभी तक आमजनों में महिलायें भी आती रही हैं। अतः महिलाओं के सहयोग के बिना महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति बनानी मुश्किल प्रतीत होती है। देश की कामकाजी महिलायें इस दिशा में अपने-अपने पतियों को अपनी-अपनी पसंद के ठोस सुझाव और दिशा-निर्देश दे सकती हैं। उन्हें चाहिये कि वे अपने पतियों के घर के बाहर उठने-बैठने-सोने में एतराज़ बिल्कुल न करें। घरेलू महिलाओं का दृष्टिकोण इस मामले में संकुचित हो सकता है किन्तु कामकाजी महिलाओं का सहृदयता दिखलानी चाहिये। पति को घर पर आने वाली कामवाली पसंद हो तो घर का मामला घर में ही निबटा लेना चाहिये।
राष्ट्रीय सहमति पर मैं जो यह अपनी बात कह रहा हूँ उसे कोरा भाषण मात्र ही न समझा जाये। महिलाओं पर राष्ट्रीय सहमति के व्यापक अर्थ हैं जिनमें प्रमुख हैं, महिलाओं की इज्ज़त उछालने पर राष्ट्रीय सहमति, महिलाओं की आबरू पर राष्ट्रीय सहमति, महिलाओं के चीरहरण पर राष्ट्रीय सहमति आदि-आदि। प्रबुद्ध और योग्य व्यक्ति इनमें अश्लील निहितार्थ भी निकाल सकते हैं। उनका स्वागत है। किन्तु एक बात तो तय है। एक बार समूचा राष्ट्र महिलाओं पर सहमत हो जाये तो फिर उनकी इज्ज़त भरे बाजार में उछालने अथवा पति परमेश्वर द्वारा सरेआम चप्पलों से इनके साथ प्रेम प्रदर्शन करने से कोई नहीं रोक सकता। खुद कोई महिला भी नहीं।’

Thursday 9 February 2017

शाहरुख़ नहीं, रईस !!

रईस में शाहरुख़ नहीं, शाहरुख़ में रईस हैं। और ये कारनामा करने वाले खुद शाहरुख़ हैं। इस लिहाज से उनका ये बोल्ड स्टेप है। वही बोल्ड स्टेप जो उन्होंने बाज़ीगर में तब लिया था जब वो एस्टेब्लिश्ड नहीं थे और उनके सामने फिल्म में नवाज़ुद्दीन भी नहीं थे, जिन्होंने आधे से ज़्यादा फिल्म में रईस को दबाये रखा। शाहरुख़ तो खुद फिल्म ख़त्म होने से करीब आधे घंटे पहले तक रईस से दबे हुए थे।
ये फिल्म क़ायदे से शाहरुख़ की थी भी नहीं। फायदे की भी नहीं थी। जो लोग फिल्म में शाहरुख़ को देखने गए, उन्हें रईस मिला तपाक से और जो रईस को देखने गए, उन्हें न तो पूरा रईस ही मिला और न ही पूरा शाहरुख़।
शाहरुख़ को डॉन जैसी फिल्में भाती हैं। शायद यही शौक़ उन्हें रईस की ओर खींच लाया होगा। उन्हें कहानी के जो मुख्य बिंदु बताये गए होंगे, उनमें प्रमुख होंगे- आप एक ईमानदार तस्कर हैं, जो हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का साथ देता है, जो मानवता का पक्षधर है, जो अपने कर्म (धंधे) को मानता है वगैराह- वगैराह। कास्टिंग के टाइम उन्हें बताया गया होगा कि नवाज़ भाई हैं पर रोल उनका काफ़ी कम है। बस, यहीं अपने मियां मात खा गए।
रईस बने शाहरुख़ के हाथों खून होते और पुलिस बने नवाज़ुद्दीन को उसके पीछे पड़े देखकर एक बारगी तो ये आभास होने लगा था कि हीरो शाहरुख़ नहीं, नवाज़ हैं। वो तो भला हो स्क्रिप्ट का, कि नवाज़ का ट्रांसफर हो गया और भाईजान को मौका मिल गया कुछ कर दिखाने का। पर क्या कर दिखाने का? एक सीन में वो गरीबों को न्याय दिलाने के लिए भिड़ते हुए दिखाई देते हैं, उसी सीन में पीछे अमिताभ की एक हिट फिल्म का दृश्य चल रहा होता है जिसमें अमिताभ गरीबों को न्याय दिलाने के लिए भिड़े होते हैं। इसका क्या अर्थ हुआ? इस सीन की क्या ज़रूरत थी। इस स्टेज़ पर आकर शाहरुख़ को खुले- आम कॉपी करता दिखाया जाना क्या सिद्ध करता है? यदि रईस के काल को दिखाने के लिए अमिताभ का सीन लिया गया था तो तरस आता है इस सोच पर।
और तरस तो मुझे तब भी आया था जब 9 बजे रात के शो की टिकट देने के लिए मना कर दिया गया क्योंकि सिर्फ तीन ही दर्शक थे। और मज़े की बात ये कि 9.15 की 'क़ाबिल' के लिए 'हाँ' थी क्योंकि वहां ज़्यादा दर्शक थे इसलिये शो चलना था। वो तो जब मैंने हंगामा किया कि हमारी बात कराओ, कैसे नहीं चलेगा शो, एस. आर.के. को पता चलेगा कि क़ाबिल चल रही है और रईस नहीं, तो कितना बुरा लगेगा उसे। तब जाकर उसने कहीं फ़ोन लगाया और हमें टिकट इस शर्त के साथ दिए कि कूपन भी लो, कॉफी और पॉपकॉर्न के, कि कुछ खाओगे- पीओगे भी।
मैंने 500 का नया नोट उसे देते हुए कहा- इतने रईस तो हैं हम भी।😊

Sunday 22 January 2017

तक़दीर का फंसाना

          छोटे शहर में ऑटो कम, रिक्शाएं ज्यादा होती हैं। रिक्शा चलाने वाले को रिक्शावाला कहा जाता है। रिक्शावाला बचपन से रिक्शावाला नहीं होता। बचपन में वो रिक्शावाले का लड़का होता है। वो अपने बाप से छुपकर रिक्शा पर अपना हाथ साफ़ करता है। तब, जब उसका बाप दोपहर में घर आया हुआ होता है और आराम कर रहा होता है। माँ चिल्लाती है कि पढ़ लिख ले वरना बाप की तरह रिक्शा ही चलाता रह जायेगा। बाप भी उसे पीटता है रिक्शा दीवार में ठुक जाने पर। बाद में जब उसका बाप दारु पीकर कई - कई दिन काम पर नहीं जाता तो उसकी माँ ही उसे कहती है कि जा, रिक्शा ले जा और कुछ कमा कर ला। ये भड़ुआ तो घर पर ही पड़ा रहेगा। कालांतर में यही लड़का अमिताभ बच्चन की तरह मर्द बनता है और रिक्शावाला कहलाता है।

            वो छोटा सा मर्द अपने छोटे से शहर में अपना बड़ा सा रिक्शा संभाल लेता है। रिक्शा सँभालने के बाद ही उसे पता चलता है कि जिस रिक्शा को वो अपनी समझ रहा था वो तो किराये की है। जल्दी ही उसे ये भी ज्ञात हो जाता है कि रिक्शा का किराया भी कई महीनो से उसके मालिक को नहीं दिया गया। वो हड़बड़ा जाता है। बाप से वो कुछ कह नहीं पाता क्योंकि बाप जो होता है वो बाप होता है। वो दारु पीकर पड़ा हो तो भी बाप ही होता है।

              रिक्शा की पैडल मारते - मारते ही वो यह भी जान जाता है कि उसका बाप भरी जवानी में क्यों खांसने लगा था और वक़्त से पहले बूढा क्यों हो गया था । अब उसे यह जानने में दिलचस्पी थी कि उसका बाप घर पर कम पैसे क्यों लाता था। दो - चार पुलिसवालों के अपनत्व से उसे जल्दी ही इस बात की तसल्ली मिल जाती है कि उसकी रिक्शा पर सवारियों का टोटा नहीं रहने वाला। बस, अब उसे किराया चुकाने वाली सवारियों की तलाश थी। 

             तीन साल हो गए थे उसे रिक्शा चलाते। अभी उसकी शादी नहीं हो सकी थी। उसे हैरानी थी कि उसके बाप की उसकी उम्र में शादी कैसे हो गयी थी। जिस हिसाब से वो कमा रहा थाउसे नहीं लगता था कि आगामी तीस सालों में भी उसकी शादी होने की संभावना बनती थी। कमा क्या रहा था, गँवा ज्यादा रहा था।  पैसा, सेहत और उम्र। पैसा उसपर भारी था और सेहत पैसों पर। दोनों मिलकर उसकी उम्र पर भारी पड़ रहे थे। 

               गलती से एक बार उसकी शादी हो गयी। कोई नहीं रोक सका उसकी शादी को। भगवान की यही मर्ज़ी थी। रिश्ता भी तो भगवानदास ने ही कराया था। लड़की की माँ उसे कहीं मिल गयी थी। वो अपनी लड़की के लिए परेशान थी। इधर इसकी माँ भी परेशान थी। दोनों ने सोचा कि जब परेशान ही होना है तो साथ मिलकर परेशान क्यों न हों। फिर दोनों मिलकर भगवान को परेशान करेंगे। भगवानदास से उनकी दुश्मनी जानी जाती थी। 

              वो बहुत खुश था। वहीजो पहले रिक्शावाले का लड़का कहलाता था और बाद में खुद रिक्शावाला कहलाने लगा था। उसकी शादी एक मंदिर में हुई जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो शामिल हुए थे। लड़की की माँ और उसका रिक्शावाला बाप भी था। ख़ुशी की बात यह कि वो लड़की भी थी जिससे उसकी शादी तय हुई थी। लड़की के बाप ने उसे एक कोने में ले जाकर उसके हाथ में लिवर दुरुस्त रखने की एक शीशी थमाई और दूसरे हाथ से उसकी जेब में बियर की एक छोटी सी बोतल चुपके से ये कहते हुए डाल दी कि रिक्शा खींचने से लिवर और किडनी पर असर पड़ता है और ये दोनों दवाइयां नियमित रूप से लेने से उनपर असर काम पड़ेगा। 

                रिक्शावाले लड़के को रात बिताने के लिए वही खोली नसीब हुई जो उसके बाप रिक्शावाले को और उसके भी पहले उसके पिता को बरसों पहले नसीब हुई थी और जहाँ वो माँ के साथ रहता आया था। माँ ने खुश होकर अपनी चारपाई भी नए जोड़े के हवाले कर दी थी और खुद वो बाहर अपने शराबी पति के साथ रात काटने के लिए इस शर्त पर चली गयी थी कि वो उस रात शराब नहीं पियेगा। ख़सम ने भी शर्त की लाज़ रखी और उस रात शराब न पीकर वो बियर पी जो उसे उसके पुत्र की जेब से थोड़ी देर पहले हासिल हुई थी। 

                  उस रात अपने रिक्शावाले भइया ने अपनी नयी नवेली का घूंघट उठाया तो नवेली ने मुँह दिखाई में माँगा कि अगर लड़का हुआ तो एक अच्छी सी रिक्शा दिलाएगा और लड़की हुई तो एक अच्छे से रिक्शावाले के साथ उसका ब्याह रचाएगा। 

                    और अपने भइया ने मुस्कुराकर हाँ कर दी।