Sunday 9 October 2011

दो अक्तूबर आया..दो अक्तूबर गया..


आज दो अक्तूबर हैं। यह बात मुझे कल रात ही मालूम हो गयी थी। बल्कि दो.चार रोज पहले से ही मैं चौकस हो गया था कि दो अक्तूबर आने वाला है। आज सुबह जब दो अक्तूबर आ गया तो मैंने सोचा कि इस घर में बस मुझे ही मालूम है कि आज दो अक्तूबर है। लेकिन मेरी पत्नी को भी मालूम था कि आज दो अक्तूबर है। बल्कि उसका कहना तो यह था कि उसे सितम्बर में ही मालूम था कि दो अक्तूबर आने वाला है। इसी बात पर मेरी उससे कलह लगभग रोज होती है कि उसे वही बात जो होनी होती है, वह पहले से ही मालूम हो जाती है। इस बार चूंकि यह बात मुझे उससे पहले मालूम थी कि आज दो अक्तूबर है, तो यह उससे हज़म नहीं हुई। इसलिए वह सुबह-सुबह मुझ पर झल्ला गयी। कोई और दिन होता तो मैं तुरन्त सरेण्डर कर देता यह सोचकर कि वह लड़ने का बहाना ढूंढती है। लेकिन आज वजह दूसरी थी। आज मैंने यह सोचकर सरेण्डर किया कि आज दो अक्तूबर है। दो अक्तूबर का दिन लड़ने के लिए नहीं होता है। लड़ने के लिए एक अक्तूबर है, तीन अक्तूबर है लेकिन दो अक्तूबर नहीं।
मेरा विचार यह था कि मैं दो अक्तूबर को गांधी जी की कोई मूवी देखूंगा। मेरा यह भी विचार था कि मैं गांधी जी पर कोई पुस्तक पढंूगा। गांधी जी पर न पढ़ सका तो गांधी जी की ही पढं़ूगा। दिन में गांधी की तरह सादगी से रहूंगा। सादगी से भोजन करूंगा, दो-चार गांधीवादी चेहरे देखूंगा और कुल मिलाकर सादगीपूर्ण दिन गुजारूंगा। 
मैंने इसके लिए प्रयास भी किये थे। सुबह होते ही मैंने पत्नी का चाय बनाकर दी थी और उसमें उतनी ही शक्कर डाली थी जितनी उसे आवश्यकता थी। लेकिन मैं यह शक्कर उसकी ज़बान में न डाल सका।
इसके बाद मैंने छुट्टी का दिन होने के बावजूद जल्दी नहा लेने का उपक्रम किया। उपक्रम ही क्यो, पूरी प्रक्रिया कर डाली थी। मेरा विचार था कि गांधी जी प्रातःकाल ही स्नानादि से निबट लेते होंगे। मुझे कम से कम इस कार्य में तो उनका अनुसरण करना ही चाहिए। आज दो अक्तूबर जो था।
नहाने के उपरान्त मैंने राम का भजन किया। वे रघुपति..राघव..राजाराम का जाप करते थे। मुझे भजन इसके आगे आता नहीं था, सो इस सम्बन्ध में जो भी सत्साहित्य पूजाघर में उपलब्ध था, उसे ही पूर्ण मनोयोग से पढ़ा और नाश्ता करने के लिए पत्नी के पास किचन में आ गया।
पत्नी जो थी, वह नाश्ता करने के मूड में तो थी, किन्तु बनाने के मूड में कतई नहीं दिखी। वह आज संडे मनाने के मूड में थी और मैं दो अक्तूबर। दिन एक ही था लेकिन हम दोनों उसे अलग-अलग नज़रिए से देख रहे थे। मेरे लिए आज दो अक्तूबर था किन्तु उसके लिए आज संडे था। मैं सादगी से दिन मनाना चाहता था और वह किसी रेस्तरां में जाकर दिन की शुरूआत करना चाहती थी। मुझे दो अक्तूबर दिखाई दे रहा था, उसे संडे। मैं कह रहा था कि साल में एक बार तो आता है दो अक्तूबर। वह कह रही थी कि सप्ताह में एक बार तो आता है संडे। इस बार हाथ से गया तो फिर अगले सप्ताह ही आयेगा। उससे पहले नहीं। उसकी बात भी सही थी। आज निकलने के बाद संडे जल्दी तो आने वाला नहीं था। सात दिनों बाद ही आता। सात दिन से पहले तो हरगिज नहीं आता। मेरे कहने से क्या, गांधी जी के कहने से भी नहीं आता। अब क्या होना था। मैं गांधी को फालो कर रहा था किन्तु वह बा नहीं थी इसलिए गांधी जी को फालो करने को तैयार नहीं थी। लिहाज़ा, गांधी जी तो हाथ से निकल ही गये थे, दो अक्तूबर भी फिसलने लगा।
दोपहर में तो हद हो गयी। मैं लगातार चैनल पर चैनल बदलता रहा कि कहीं गांधी जी दिखाई दे जाएं। लेकिन किसी चैनल पर गांधी जी नहीं दिखे। जो लोग गांधी जी का नाम लेते दिखे भी, वे मुझे कहीं से भी गांधीमय नहीं लगे। शायद राम जी की तरह गांधी जी भी बनवास पर चले गये थे।
शाम को मैं इस चक्कर में था कि गांधी जी के किसी भक्त से भेंट करूं और अपना दिन जैसे भी कटा हो रात तो गांधी जी को सिमरन करके काटूं। लेकिन ऐसा संभव न हो सका। एक ऐसे मित्र मिलने आ गये जिनका गांधी जी के नाम से तो क्या, स्वभाव से भी दूर-दराज का कोई रिश्ता फिट नहंी होता था। उलटे, वे गांधी जी के नाम से ही बिदकते थे। मैंने उन्हें दो अक्तूबर की शुभकामनाएं दीं तो वे हिंसा पर उतर आये। दो अक्तूबर ना भी होता तो भी मैं हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा से नहीं दे पाता। फिर आज तो गांधी जयंती थी। 

Sunday 2 October 2011

बस, तू कब आयेगी!



बस की प्रतीक्षा में खड़ा यात्री स्वयं से पूछता है- बस, तू कब आएगी?
दुनिया में बस ही एक ऐसी चीज है जिसके बारे में प्रतीक्षारत् यात्री कभी नहीं कहता, कि अब ‘बस’ भी कर। मत आ। वह प्रतीक्षा करता रहता है, अनवरत्। एक बस आती है, और चली जाती है। नहीं रूकती। दूसरी आती है और चली जाती है। भरी हुई है, कैसे रूके। यात्री झींकता है। पर प्रतीक्षा करना उसकी मजबूरी है। उसकी किस्मत में प्रतीक्षा करना लिखा है। वह चलता-फिरता प्रतीक्षालय है जिसमें बैठा वह अकेला प्रतीक्षा करता रहता है बस की। उसे लगता है कि वह सारी उम्र प्रतीक्षा करता रहेगा उस बस की, जो आती है और चली जाती है। कभी रूकती है तो भरी हुई होती है और जब नहीं रूकती तो उसे मानना पड़ता है कि भरी हुई होगी। वह अगली बस की प्रतीक्षा करने लगता है, जिसके बारे में उसका यह मानना होता है कि वह भरी हुई नहीं होगी, खाली होगी। लेकिन वह बस कभी नहीं आती जो खाली हो। आती है तो खाली नहीं होती। खाली होती है तो रूकती नहीं। रूकती है तो कोई सीट खाली नहीं होती।
वह प्रतीक्षारत् है, किसी खाली बस के लिए। 
वह कल्पना करता है कि बस उसके पास आकर रूकेगी। कण्डक्टर मुस्कुराकर उससे पूछेगा, कहां जाना है? 
यात्री कहेगा, मोतीचूर। 
कण्डक्टर जवाब देगा, आइये बैठिये। यह बस तो सीधे मोतीचूर तक ही जा रही है। 
फिर वह बस में चढे़गा किसी शाही अंदाज में। बस, बिलकुल खाली होगी, जैसे उसी के लिए बनी हो। वह सबसे आगे वाली सीट पर जाकर बैठ जायेगा। फिर तुरन्त उठेगा और पीछे वाली सीट पर बैठ जायेगा। उसे वहां भी चैन नहीं आयेगा तो वह कण्डक्टर के साथ बैठ जायेगा। वह चालक की सीट पर भी बैठना चाहेगा। अंततः, वह खड़ा होकर यात्रा करेगा, जैसे कि वह प्रतिदिन करता है।
परन्तु ऐसा नहीं होता। बस नहीं आती बहुत देर तक। आती है, तो रूकती नहीं। रूकती है तो तो खाली नहीं होती। खाली होती है तो मोतीचूर नहीं जा रही होती। अर्थात कुछ न कुछ ऐसा होता है कि वह प्रतीक्षा करता रह जाता है, अगली बस की। अगली बस, जो नामालूम कब आयेगी। आयेगी तो रूकेगी नहीं। रूकेगी तो चांदपुर की होगी, वहां की तो बिलकुल ही नहीं होगी, जहां पर वह जा रहा होगा।
एक बस जीवन भर यात्री को प्रतीक्षा कराती है और दिन में सैकड़ों यात्री जीवन भर बस की प्रतीक्षा करते हैं और एक दूसरे से पूछते हैं - बस, तू कब आयेगी? ऐरी बस, तू कब आयेगी? बस री, तू कब आवेगी? यही जीवन की बस है।