Sunday, 22 January 2017

तक़दीर का फंसाना

          छोटे शहर में ऑटो कम, रिक्शाएं ज्यादा होती हैं। रिक्शा चलाने वाले को रिक्शावाला कहा जाता है। रिक्शावाला बचपन से रिक्शावाला नहीं होता। बचपन में वो रिक्शावाले का लड़का होता है। वो अपने बाप से छुपकर रिक्शा पर अपना हाथ साफ़ करता है। तब, जब उसका बाप दोपहर में घर आया हुआ होता है और आराम कर रहा होता है। माँ चिल्लाती है कि पढ़ लिख ले वरना बाप की तरह रिक्शा ही चलाता रह जायेगा। बाप भी उसे पीटता है रिक्शा दीवार में ठुक जाने पर। बाद में जब उसका बाप दारु पीकर कई - कई दिन काम पर नहीं जाता तो उसकी माँ ही उसे कहती है कि जा, रिक्शा ले जा और कुछ कमा कर ला। ये भड़ुआ तो घर पर ही पड़ा रहेगा। कालांतर में यही लड़का अमिताभ बच्चन की तरह मर्द बनता है और रिक्शावाला कहलाता है।

            वो छोटा सा मर्द अपने छोटे से शहर में अपना बड़ा सा रिक्शा संभाल लेता है। रिक्शा सँभालने के बाद ही उसे पता चलता है कि जिस रिक्शा को वो अपनी समझ रहा था वो तो किराये की है। जल्दी ही उसे ये भी ज्ञात हो जाता है कि रिक्शा का किराया भी कई महीनो से उसके मालिक को नहीं दिया गया। वो हड़बड़ा जाता है। बाप से वो कुछ कह नहीं पाता क्योंकि बाप जो होता है वो बाप होता है। वो दारु पीकर पड़ा हो तो भी बाप ही होता है।

              रिक्शा की पैडल मारते - मारते ही वो यह भी जान जाता है कि उसका बाप भरी जवानी में क्यों खांसने लगा था और वक़्त से पहले बूढा क्यों हो गया था । अब उसे यह जानने में दिलचस्पी थी कि उसका बाप घर पर कम पैसे क्यों लाता था। दो - चार पुलिसवालों के अपनत्व से उसे जल्दी ही इस बात की तसल्ली मिल जाती है कि उसकी रिक्शा पर सवारियों का टोटा नहीं रहने वाला। बस, अब उसे किराया चुकाने वाली सवारियों की तलाश थी। 

             तीन साल हो गए थे उसे रिक्शा चलाते। अभी उसकी शादी नहीं हो सकी थी। उसे हैरानी थी कि उसके बाप की उसकी उम्र में शादी कैसे हो गयी थी। जिस हिसाब से वो कमा रहा थाउसे नहीं लगता था कि आगामी तीस सालों में भी उसकी शादी होने की संभावना बनती थी। कमा क्या रहा था, गँवा ज्यादा रहा था।  पैसा, सेहत और उम्र। पैसा उसपर भारी था और सेहत पैसों पर। दोनों मिलकर उसकी उम्र पर भारी पड़ रहे थे। 

               गलती से एक बार उसकी शादी हो गयी। कोई नहीं रोक सका उसकी शादी को। भगवान की यही मर्ज़ी थी। रिश्ता भी तो भगवानदास ने ही कराया था। लड़की की माँ उसे कहीं मिल गयी थी। वो अपनी लड़की के लिए परेशान थी। इधर इसकी माँ भी परेशान थी। दोनों ने सोचा कि जब परेशान ही होना है तो साथ मिलकर परेशान क्यों न हों। फिर दोनों मिलकर भगवान को परेशान करेंगे। भगवानदास से उनकी दुश्मनी जानी जाती थी। 

              वो बहुत खुश था। वहीजो पहले रिक्शावाले का लड़का कहलाता था और बाद में खुद रिक्शावाला कहलाने लगा था। उसकी शादी एक मंदिर में हुई जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो शामिल हुए थे। लड़की की माँ और उसका रिक्शावाला बाप भी था। ख़ुशी की बात यह कि वो लड़की भी थी जिससे उसकी शादी तय हुई थी। लड़की के बाप ने उसे एक कोने में ले जाकर उसके हाथ में लिवर दुरुस्त रखने की एक शीशी थमाई और दूसरे हाथ से उसकी जेब में बियर की एक छोटी सी बोतल चुपके से ये कहते हुए डाल दी कि रिक्शा खींचने से लिवर और किडनी पर असर पड़ता है और ये दोनों दवाइयां नियमित रूप से लेने से उनपर असर काम पड़ेगा। 

                रिक्शावाले लड़के को रात बिताने के लिए वही खोली नसीब हुई जो उसके बाप रिक्शावाले को और उसके भी पहले उसके पिता को बरसों पहले नसीब हुई थी और जहाँ वो माँ के साथ रहता आया था। माँ ने खुश होकर अपनी चारपाई भी नए जोड़े के हवाले कर दी थी और खुद वो बाहर अपने शराबी पति के साथ रात काटने के लिए इस शर्त पर चली गयी थी कि वो उस रात शराब नहीं पियेगा। ख़सम ने भी शर्त की लाज़ रखी और उस रात शराब न पीकर वो बियर पी जो उसे उसके पुत्र की जेब से थोड़ी देर पहले हासिल हुई थी। 

                  उस रात अपने रिक्शावाले भइया ने अपनी नयी नवेली का घूंघट उठाया तो नवेली ने मुँह दिखाई में माँगा कि अगर लड़का हुआ तो एक अच्छी सी रिक्शा दिलाएगा और लड़की हुई तो एक अच्छे से रिक्शावाले के साथ उसका ब्याह रचाएगा। 

                    और अपने भइया ने मुस्कुराकर हाँ कर दी। 

Friday, 1 November 2013

एक गरीब की दीपावली

                           
यह एक गरीब था और दीपावली मनाना चाहता था। किन्तु उसे दुःख था कि वह गरीब है और दीपावली धूमधाम से नहीं मना सकता। वह अपनी गरीबी पर इस हद तक शर्मिन्दा था कि एक बार तो उसने यह तय कर लिया कि वह दीपावली नहीं मनायेगा। किन्तु दूसरे क्षण उसने सोचा कि यदि वह दीपावली नहीं मनायेगा तो आसपास वाले क्या सोचेंगे।वे कहेंगे कि जब वह अपनी कन्या का प्रवेश एक महंगे और शहर के प्रतिष्ठित विद्यालय में करा सकता है तो दीपावली धूमधाम से क्यों नहीं मना सकता। वह इसका उत्तर सोचने लगा। थोड़ी देर में उसने जबाव तैयार कर लिया। जवाब यह था कि महंगे और प्रतिष्ठित स्कूल में दाखिला दिलाने के बाद उसके पास इतने पैसे नहीं बचे थे कि वह दीपावली धूमधाम से मना सके। पर जब जवाब उसे जंचा नहीं तब वह और  चीजों के भाव मालूम करने बाजार चला गया।
उसने खील, बताशों, खिलौनों से लेकर मिठाईयों-फ्रूटों और ड्राईफ्रूटों के बाज़ार भाव मालूम किये। हर चीज़ पिछले वर्ष के मुकाबले महंगी हो गयी थी। दाम लगभग ड्योढ़े हो गये थे। केवल काजू के भाव में ही वृद्धि इतनी अधिक नहीं हुयी थी जितना उसका अनुमान था। अतः उसने अनमने भाव से काजू के पैकेट्स खरीदे और घर ले आया। घर आकर उसने पिछले वर्ष का सूची-पत्र निकाला। कुछ पुराने नामों को काटा और नये नामों को जोड़ा। व्यक्तित्व के भार के अनुसार में उसने डिब्बों के भारों को रखा और चिटें चिपका दीं। इसके बाद वह निश्चित हो गया और पड़कर सो गया।
किन्तु चिन्ता ने उसे जगा दिया। काजुओं में उसका खर्चा बहुत हो गया था और वह गरीब था। उसने सोचा, अभी भी कुछ नाम ऐसे रह गये थे जिन्हें दीपावली के शुभअवसर पर काजू भेजे जा सकते थे। किन्तु वह गरीब था इसलिये काजू के और डिब्बे अफोर्ड नहीं कर सकता था। वह रात भर सोचता रहा कि कल बच्चे पटाखे, फुलझडि़याँ और राकेट माँगेगे तो वह क्या जवाब देगा। इसी चिन्ता में सुबह हो गयी।
सुबह बच्चों ने उसके हाथ में लिस्ट दे दी। लिस्ट में नाना प्रकार के पटाखों के नाम थे जिनका नाम वह अब से पूर्व बिल्कुल नहीं जानता था। कुछ पटाखों के नाम तो अन्तरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों और ईराक-ईरान युद्ध में प्रयोग किये गये प्रक्षेपास्त्रों से इतने अधिक मिलते थे कि एक बार तो उसे भय लगा कि अमेरिका को पता चल गया तो कहीं वह नाराज़ न हो जाये। वह कमाता तो बहुत था पर डरता भी उसी अनुपात में था। ज्यादा कमाने वाले ज्यादा डरते क्यों है? उसने सोचा पर दूसरे ही क्षण वह इस प्रश्न पर विचार करने लगा कि ज्यादा कमाने के बावजूद वह गरीब क्यों है।बहरहाल लिस्ट लेकर वह बाजार गया और ख्ूाब सारी मिसाइलें व एटम बम खरीदे। एक अनुमान के अनुसार उसने अपनी आय का साढ़े बारह प्रतिशत इन आयुधों पर व्यय कर दिया था और वह कई मुल्कों के रक्षा बजट के प्रतिशत से कहीं अधिक था। जब वह अपनी नई कार पर इन एटम बमों और मिसाइलों को लादकर ला रहा था तो कार की पिछली सींट व डिक्की पूरी तरह भरी हुयी थी और कार उसे किसी टैंक से कम प्रतीत नहीं हो रही थी। कार को ड्राईव करते वक्त उसे ऐसा लगा कि वह थलसेना का कोई बड़ा अधिकारी है और दुश्मनों के छक्के छुड़ाने जा रहा है।
लेकिन थोड़ी ही देर में उसे याद आया कि गरीब होने के बावजूद इस मद में वह काफी खर्चा कर चुका है और वह सोचकर वह फिर परेशान हो गया।
घर लौटा तो उसकी पत्नी ने याद दिलाया कि अभी बंगले की सजावट नहीं हुयी है और जब तक बंगले को सजाया नहीं जायेगा, दीपावली मनाने में खासी दिक्कतें आयेगी। उसने भी सोचा कि गरीब से गरीब अपनी दीपावली अच्छी मनाना चाहता है। वह भी चूँकि गरीब है इसलिये दीपावली जरूर अच्छी मनायेगा। उसने सजावट वाले को टेलीफोन किया और उससे कहा कि वह उसके बंगले की सजावट इस तरह करे कि वह किसी राजा के महल की तरह लगे। उसने यह भी निर्देश दिया कि ऐसी सजावट किसी और बंगले की नहीं होनी चाहिये, इसके बाद उसने रिसीवर रख दिया।
हालांकि वह बंगले को ताजमहल बनाना चाहता था पर इसमें पैसे बहुत लगते। इतने पैसे उसके पास नहीं थे। वह गरीब जो था। इसलिये उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
दीपावली के बाद उसने हिसाब लगाया तो उसे हैरान हो जाना पड़ा कि उसके कई हजार रूपये दीपावली की भेंट गये थे। उसे बहुत दुख हुआ।
वह दुखी इसलिये हुआ क्योंकि वह गरीब था और दीपावली धूमधाम से नहीं मना सका था।



 

Thursday, 15 August 2013

डेमोक्रेसी का डेकोरम

कल स्वतन्त्रता दिवस है। यह बहस का विषय हो नहीं सकता। इस मामले में बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं है। और फिर बहस तो छोटे बच्चों का विषय है। 
जब तिरंगे, बिकने के लिए दुकानों में आ गये हों और बच्चों को यह कह दिया गया हो कि सभी बच्चे अलसुबह खाली पेट, झंडा लेकर कल स्कूल में उपस्थित हों तो अब तो शंका की गंुजायश ही नहीं बचती कि कल स्वतंत्रता दिवस है। 
हम जिसका इंतजार नहीं कर रहे थे वह दिन कल फिर आ जायेगा। बच्चों को स्कूल जाना पड़ेगा। सच मानिये, जब से मिड डे मील, लास्ट डे मील सिद्ध हुआ है तभी से बच्चों का पेट स्कूल जाने के नाम पर दर्द करने लगा है। स्वतंत्रता दिवस की सार्थकता क्या है, यह बच्चे क्या जाने। उन्हें लगता है कि आज फिर मिड डे मील भकोसना पड़ेगा। वे इसे अपने मील से लिंक्ड कर रहे हैं। वे बच्चे हैं। नहीं जानते कि किसको किससे लिंक्ड करना चाहिये। लिंक्ड करने की भी एक कला होती है। यह कला कल-आजकल में नहीं सीखी जा सकती। बताइये, पेट को स्कूल से लिंक्ड कर रहे हैं। उन्हें पेट को पेस्टीसाइड से लिंक्ड करना चाहिए। नहीं?
बच्चों का अपना सौन्दर्यशास्त्र है जिसमें अर्थशास्त्र नहीं आता। उनके सौन्दर्यशास्त्र में राजनीति भी नहीं आती। वे तो बस मील के लिए स्कूल जाते हैं। गरीब बच्चा जब-जब स्कूल जाता है तो ‘मील’ के लिए ही स्कूल जाता है और अध्यापकों से भी मिल आता है। ईश्वर जानता है कि गरीब बच्चा जब-जब स्कूल जाता है तो पाालटिक्स के पेट में दर्द उत्पन्न हो जाता है। जहां सारी कायनात उसे स्कूल भेजने में जोर लगाती है वहीं वह यह बेचारा छोटा सा, प्यारा सा, नन्हा सा होमो सेपियन्स अपना सारा जोर भूख मिटाने में लगाता है। बिना यह सोचे-समझे कि जो कुछ वह अपने डाइजेस्टिव सिस्टम की डिमांड पर खा रहा है वह सब कुछ उस सिस्टम की देन है जिसपर किसी का जोर नहीं। खुद सिस्टम बनाने वाले का भी नहीं। सिस्टम की नर्वसनेस देखिए, उसका नर्वस सिस्टम क्या देखते हैं।
पेट खाली हो और हाथ में तिरंगा हो तब भी देश के लिए भूखे-प्यासे रहकर मर मिटने का जज्बा पैदा हो सकता है। तब भी मुख से भारत माता की जय का नारा निकल सकता है। लेकिन ऐसी बहादुर मौत कौन चाहेगा जो स्कूल के बरामदे में जहरीला खाना खाने से मिलती हो। विचार है कि जब पेट खाली हो तो ज्ञान से पेट नहीं भरता। उत्तम विचार यह है कि पहले पेट का ही राम नाम सत्य करें ताकि न हो बांस और न बजे ससुरी बांसुरी।
बताइये, जिसे मील का पत्थर बनना था, उसे मिड डे मील खाकर मरना पड़ा। हास्य नहीं, हास्यास्पदता देखिए।
इस स्वतं़त्रता दिवस पर सरकारी स्कूल जाने वाले कम से कम कितने कर्णधारों को इस बात की गारन्टी दी जा सकती है कि उन्हें भविष्य में कीड़ों की तरह पेस्टीसाइड पीकर नहीं मरना पडे़गा और डेमाक्रेसी का डेकोरम बाकायदा मेन्टेन किया जायेगा। 
मी लार्ड! बच्चों को मरने से पूर्व कम से कम उतनी उम्र तो बख्श दी जाए, जितनी आजाद भारत की है। 
दैट्स आॅल मी लाॅर्ड।

  

Sunday, 28 October 2012

अब लीजिए भी चचा !!



तो अब यह तय हो गया है कि घूसखोरी के बिना कोई चारा नहीं। लाचारी का नाम है घूस। आचार भी लाचार हो गये है इसके सामने। व्यवहार में घुस आयी है यह। आचार में टंकित हो गयी है इसकी छवि। मुस्कुराती हुयी। जैसे अभी-अभी नहा धोकर पूछने आयी हो गीले बालों को झटकती हुयी, कि कुछ लेंगे? और सम्मोहित सा व्यक्ति स्वीकारोक्ति में सिर को हिला भर देता है, जानते-बूझते हुये भी कि यह सम्मोहिनी है, अपने रूप-जाल में फंसा रही है, वह उसके जाल में फंस जाता है।
घूसखोरी कर्तव्य बन गयी है। आदमी सुबह तैयार होकर दफ्तर पहुँचता है, जरूरी फाइलें निबटाता है, लंच लेता है, घूस लेता है, और शाम को घर वापस लौट आता है। जो सज्जन दफ्तर में इस काम को नहीं कर पाते है, वे घर पर इस पवित्र कार्य को निबटाते हैं। आजकल इस कार्य को शोरूमों में किया जाने लगा है। लेने वाले की पसंद के अनुसार। देने वाले को तो देनी ही है।
नया-नया अधिकारी नये-नये शहर में स्थानान्तरित होकर आता है। अपरिचित शहर, अपरिचित शहरवासी, अपरिचित व्यवहार। सबसे बड़ी बात यह कि घूस का अपरिचित ढंग। पता नहीं लोगों के रीतिरिवाज कैसे हो। देते भी हैं या नहीं। लेकिन ऐसा भी कहीं होता है। लेने वाले भी हैं तो देने वाले भी हैं। सभी की पूँछ कहीं न कहीं दबी है। उसे उठाये रखने के लिये चारा डालना अति आवश्यक है। एक बकरी बाँधी जाती है, सत्ता के गलियारे में। शहरवाले अपने गले में ढोल लेकर हांका लगाते है जिसकी आवाज सत्ता के केन्द्र में बैठे हमारे अधिनायक ही सुन पाते है। सत्ता के मद में चूर ये अधिनायक भागते-भागते आते हैं और चारे का उपभोग कर शहर को उपकृत करते है। शहर भी खुश उसके अधिनायक भी खुश। लाचारी मिनटों में सदाचार में बदल जाती है। पुराना चोला उतर जाता है, नया धारण कर लिया जाता है। अभिवादन के तौर बदल जाते हैं, मुस्कुराने के तरीके बदल जाते हैं, संवेदनायें बदल जाती हैं, शर्म का पारा बदल जाते हैं, (अपना) उल्लू सीधा हो जाता है, साहब का मिज़ाज बदल जाता है। सब ससुरी एक चीज़ के लिये-घूस के लिये। बेबाक सी, बेताब सी, घूस के लिये।
वर्षों के तप के पश्चात घूसखोरी को लक्ष्य प्राप्त हुआ है। यानी इसे ईश्वर के दर्शन हुये है। अब यह प्रचंड वेग से ऊपर से नीचे तक फैल गयी है। दांये-बायें, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे सभी दिशाओं में। जिन्हें कभी दिशाओं का भान नहीं था, उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। दिव्यदृष्टि वो, जो समय पर मिले। यहाँ तो मामला ही दृष्टियों का है। एक दिशा के लिये एक दृष्टि। चहुँ दिशाओं हेतु चहुँ ओर दृष्टियाँ। किन्तु आश्चर्य! कि सभी दृष्टियाँ एक ही दिशा की ओर लगी हैं। वह दिशाजो सभी दिशाओं से मिलकर बनी है। सभी ने इस दिशा के जन्म में, इसके निर्माण में कुछ न कुछ योगदान दिया जिसका प्रभाव सभी ने एकमत से स्वीकारा। जिसका प्रभावमण्डल जमकर छितरा। जिसके आलोक में सभी फले-फूले। प्रकान्ड पंडितों ने जिसे रिश्वत का नामकरण दिया। अनुवादकों ने विभिन्न भाषाओं में जिसके अनुवाद किये और यह अदना सा लेखक जिसे घूस के नाम से जानता हैं।
तो साथियों, तालियों के साथ इसका स्वागत कीजिये। अपनी-अपनी सीटों पर खड़े हो जाइये। बड़े साहब के साथ जो आ रही है, छोटे साहब के साथ जो जा रही है, बड़े बाबू के साथ जो गुनगुना रही है, छोटे बाबू के साथ जो गा रही है, चपड़ासी का मन जो बहला रही है, वह और कोई नहीं आपकी अपनी, तेरी-मेरी और उसकी, गोरी/चिट्टी, गोल-मटोल घूस ही है।
अजी साहब, ले लीजिये। हमें मालूम है आप नहीं लेते। पर थोड़ी तो लीजिये।अपने लिये न सही, बच्चों के लिये लीजिये। भाभी जी के लिये लीजिये। अजी लीजिये तो सही। अब तो सब चलता है जी। इसके बिना भी कहीं कुछ होता है साहब। अब तो इसे स्वीकृत कर ही देना चाहिये। अब तो दफ्तरों में इसकी फोटो टांग ही देनी चाहिये। कार्यालयों में इसका आदेश निकलवा देना चाहिये। मेज के ऊपर से न सही तो नीचे से ही लीजिये। चलिये अब उठाइये भी। इतना संकोच न कीजिये। कैश नहीं तो काइन्ड लीजिये। ओपन नहीं तो ब्लाइन्ड ही लीजिये। अब लीजिये भी चचा!


Friday, 26 October 2012

सपने में आये अरविन्द केजरीवाल साहब!!


पत्नी जी ने रात को सपना देखा. और सपने में अरविन्द केजरीवाल साहब को देखा. सुबह उठते ही बोली कि आओ, पहले सपना सुनो, चाय बाद में बनाना. ऐसा सुअवसर खाकसार को कभी-कभी ही मिलता है जब पत्नी कहती है कि चाय अभी नहीं बनाओ और पास आकर बैठ जाओ. अतः मैं चुपचाप आकर उनके निकट बैठ गया.  अरविन्द केजरीवाल साहब अत्यंत चौकस व्यक्तितत्व के धनी हैं और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो उनका चौकन्नापन देखते ही बनता है. केजरीवाल साहब को पहले केजरीवाल कहता था लेकिन पत्नी के आग्रह पर केजरीवाल जी कहना प्रारंभ कर दिया. कुछ समय तक केजरीवाल जी ही चला लेकिन जल्दी ही पत्नी का पैगाम एक दिन घर से दफ्तर में फोन के माध्यम से आया कि अब आप केजरीवाल साहब कहना प्रारंभ कर दीजिए. पत्नी जी को जब कोई काम निकलवाना होता है तो लीजिए/दीजिए कहना आरम्भ कर देती है जो कि अत्यंत कर्णप्रिय होता है अतः में भी उनकी सलाहों पर तत्काल अमल कर देना अपना पहला फ़र्ज़ समझता हूँ.
तो वर्तमान स्थिति यह थी कि पत्नी जी जो थीं वो सोफे पर सामने बैठी थी और खाकसार उनके समक्ष इस तरह बैठा था मानो भ्रष्टाचार के केजरीवाल-आरोप हम पर सिद्ध हो गए हों. इधर दफ्तर का समय हो चला था, अभी शेव भी बनानी थी और पत्नी जी केजरीवाल रुपी उस्तरा छोड़ने को तैयार नहीं थीं. ‘क्या हुआ, जल्दी कहो’ कहने की हिम्मत ना तो पहले थी और ना अब है. और अब तो मामला ही केजरीवाल साहब का था जिसे सुलझाने में नामालूम कितना वक़्त लगना था. पत्नी जी के मुंह से बोल फूटे तो सुनकर हम फूटें. देर से दफ्तर पंहुचेंगे तो क्या कारण बताएंगे- घर पर केजरीवाल साहब आये थे या सपने में आये थे, इसलिए लेट हो गया. आज की कैजुअल लीव लेने पर भी विचार् किया तो हाथों-हाथ इस समस्या ने भी दस्तक दे दी कि ‘रीज़न’ में क्या लिखूंगा- पत्नी जी की तबियत खराब या फिर पत्नी जी के सपने के कारण मेरी तबियत खराब.
आखिरकार आकाशवाणी हुयी. पत्नी जी के मुखारविंद से बोल फूटे- ‘रात सपने में देखा कि केजरीवाल साहब ने आपको टारगेट करने का मन बना लिया है.’ सुनकर मैं नीचे गिरा जैसे कभी सत्यम के शेयर्स गिरे थे.   मैंने ऐसा क्या कर दिया जो केजरीवाल साहब ने मेरी सार्वजानिक छवि को उपकृत करने का मन बना लिया. क्या शेष सभी के भ्रष्टाचार की पोल खोली जा चुकी है जो मेरा नंबर आ गया. मैं तो एक छोटे से शहर में रहता हूँ जिसे साल में सिर्फ ६ सिलेंडर सबसिडी के साथ मिलते हैं, मेरी गैस क्यों निकालते हो भाई?, क्या दिल्ली-मुंबई वालों का अभिनन्दन करने का सद्कार्य पूर्ण हो गया जो मुझ जैसे गंवार को सम्मानित करने का मन बना लिया. हैरानी की बात यह थी कि केजरीवाल साहब उस कमजोर व्यक्ति को ललकारने का मन बना रहे थे जो कि खुद पत्नी के ललकारने हेतु अभिशप्त और भयभीत है. क्या उन्हें लगता है कि महीने में दो-चार पैसे खा लेना भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है. टी.ए. बिलों में चार सौ-पांच सौ का हेर-फेर करना भ्रष्टाचार कब से हो गया, अंकल? मैं तो रहता भी ऐसे मोहल्ले में हूँ जिसमे भ्रष्टाचार भी सब्जी की रेहडी के स्तर का होता है. महिला ने दो किलो आलू लिए और दो मिर्ची अपनी ओर खिसका लीं, वाले स्तर का. उस स्तर का नहीं कि पांच सौ ग्राम बैंगन तुलवाये और सात सौ ग्राम का कद्दू पार कर लिया.
पत्नी जी कहती हैं कि आज की तारीख में भ्रष्टाचार कौन नहीं करता, वही नहीं करता जिसे मौका नहीं मिलता. पत्नी जी भ्रष्टाचार की समर्थक नहीं है लेकिन घर पर चाय मुझे बनानी पड़ती है. यह भ्रष्टाचार है लेकिन पत्नी जी नहीं मानती. दफ्तर में जो चाय आती है उसका भुगतान हम कर्मचारी रो-रोकर कर भी नहीं करते हैं. पत्नी कहती है कि यह भ्रष्टाचार है, लेकिन मेरा मन नहीं मानता. हमारे बीच यही चिखचिख चलती रहती है.
जिस दिन की यह घटना है उस दिन मैं दफ्तर नहीं गया. कैसे जाता? जिसको केजरीवाल साहब टारगेट बना लेते हैं वह कहीं जाकर आराम से सो सकता है भला? जिन लोगों ने वास्तव में पैसा खाकर डकार भी नहीं मारी है उनका क्या हश्र होता होगा!

Wednesday, 21 March 2012

उनकी योजना


पूर्ण गंभीरता और ईमानदारी के साथ उन्होंने मुझे सूचना दी कि वे अब और सहन नहीं कर सकते तथा शीघ्र ही रिश्वत लेना प्रारम्भ कर रहे हैं।
जिस समय और जिस क्षण वे रिश्वत काया में प्रवेश करने की सूचना मुझे प्रदान कर रहे थे, आप सोच भी नहीं सकते कि कितने दुखी थे। सम्भवतः यह दुख उन्हें विलम्ब से इस 'प्लान' को लेने पर था। उनसे पूर्व उनके समस्त सगे-सम्बन्धियों तथा मित्र इस प्लान को ले चुके थे तथा अच्छी-खासी प्रीमियम प्राप्त कर रहे थे।
वे एक बडे़ सरकारी विभाग में अधिकारी थे और जिस लक्ष्य की घोषणा वे अब कर रहे थे, नियमानुसार उन्हें तभी कर देनी थी, जब उन्होंने इस पद पर अपनी योगदान आखया प्रस्तुत की थी। उनके जैसे सम्मानित अधिकारी से ऐसी अपेक्षा की जाती थी। उनके नियन्त्रण में आने वाले समस्त कर्मचारी जब पूर्ण निष्ठा के साथ रिश्वत लेने के अपने दायित्व को बरसों से निभा रहे थे तो उनपर ही ऐसी कौन सी विपदा टपकी थी जो वे अब तक लोकतंत्र की इस कामयाब योजना से विमुख चल रहे थे।

मैंने उनके चेहरे की आरे ध्यान से देखा। जब वे कह रहे थे तो कह रहे थे। उनके कहे का अर्थ स्पष्ट था। कल से वे रिश्वत लेना आरम्भ करने वाले थे। अब कोई अन्ना या लोकपाल उनके रास्ते में नहीं आने वाला था। आता भी तो वे उसे लांघने का हौसला अब रखते थे। कम से कम उनकी मुखमुद्रा से तो यही प्रतीत होता था।
उन्होंने अब तक इस रिच्च्वती हवन में सामग्री क्यों नहीं डाली थी, इस बारे में इतिहास मौन था। वे स्वयं मौन थे। हमें भी मौन रहना था। इसे प्रारम्भ करने के पीछे उनकी क्या विवशता थी, यह कोई रिश्वतखोर ही बतला सकता था।
मैंने घड़ी देखी। शाम के पांच बजने को थे। पता नहीं, वे आज ही इस पावन कार्य को प्रारम्भ करेंगे अथवा इस मैटर को कल के मुखय एजेण्डे में रखेंगे। मैं सोच रहा था। ऑफिस बंद होने के बाद वे किसी अन्य स्थान पर सोमरस का पान करने जाते थे। हो सकता है कि अपनी अन्य घोद्गाणाओं की भांति वे इसकी भी उद्‌घोद्गाणा  वहीं से करें। और इस योजना का भी अन्ततः वही हश्र हो, जो उनकी अन्य योजनाओं को हुआ।
बहरहाल, वे रिश्वत लेना प्रारम्भ करने वाले हैं, इस पर हुर्रा..ऽ..ऽ कहूं या ऊह..ला...ला.., कुछ समझ नहीं आ रहा है । हां, यह जरूर बताना चाहूंगा कि जैसे ही मेरी निगाह उनके ललाट पर गयी, उस पर अंग्रेजी का v बना हुआ था।

Sunday, 9 October 2011

दो अक्तूबर आया..दो अक्तूबर गया..


आज दो अक्तूबर हैं। यह बात मुझे कल रात ही मालूम हो गयी थी। बल्कि दो.चार रोज पहले से ही मैं चौकस हो गया था कि दो अक्तूबर आने वाला है। आज सुबह जब दो अक्तूबर आ गया तो मैंने सोचा कि इस घर में बस मुझे ही मालूम है कि आज दो अक्तूबर है। लेकिन मेरी पत्नी को भी मालूम था कि आज दो अक्तूबर है। बल्कि उसका कहना तो यह था कि उसे सितम्बर में ही मालूम था कि दो अक्तूबर आने वाला है। इसी बात पर मेरी उससे कलह लगभग रोज होती है कि उसे वही बात जो होनी होती है, वह पहले से ही मालूम हो जाती है। इस बार चूंकि यह बात मुझे उससे पहले मालूम थी कि आज दो अक्तूबर है, तो यह उससे हज़म नहीं हुई। इसलिए वह सुबह-सुबह मुझ पर झल्ला गयी। कोई और दिन होता तो मैं तुरन्त सरेण्डर कर देता यह सोचकर कि वह लड़ने का बहाना ढूंढती है। लेकिन आज वजह दूसरी थी। आज मैंने यह सोचकर सरेण्डर किया कि आज दो अक्तूबर है। दो अक्तूबर का दिन लड़ने के लिए नहीं होता है। लड़ने के लिए एक अक्तूबर है, तीन अक्तूबर है लेकिन दो अक्तूबर नहीं।
मेरा विचार यह था कि मैं दो अक्तूबर को गांधी जी की कोई मूवी देखूंगा। मेरा यह भी विचार था कि मैं गांधी जी पर कोई पुस्तक पढंूगा। गांधी जी पर न पढ़ सका तो गांधी जी की ही पढं़ूगा। दिन में गांधी की तरह सादगी से रहूंगा। सादगी से भोजन करूंगा, दो-चार गांधीवादी चेहरे देखूंगा और कुल मिलाकर सादगीपूर्ण दिन गुजारूंगा। 
मैंने इसके लिए प्रयास भी किये थे। सुबह होते ही मैंने पत्नी का चाय बनाकर दी थी और उसमें उतनी ही शक्कर डाली थी जितनी उसे आवश्यकता थी। लेकिन मैं यह शक्कर उसकी ज़बान में न डाल सका।
इसके बाद मैंने छुट्टी का दिन होने के बावजूद जल्दी नहा लेने का उपक्रम किया। उपक्रम ही क्यो, पूरी प्रक्रिया कर डाली थी। मेरा विचार था कि गांधी जी प्रातःकाल ही स्नानादि से निबट लेते होंगे। मुझे कम से कम इस कार्य में तो उनका अनुसरण करना ही चाहिए। आज दो अक्तूबर जो था।
नहाने के उपरान्त मैंने राम का भजन किया। वे रघुपति..राघव..राजाराम का जाप करते थे। मुझे भजन इसके आगे आता नहीं था, सो इस सम्बन्ध में जो भी सत्साहित्य पूजाघर में उपलब्ध था, उसे ही पूर्ण मनोयोग से पढ़ा और नाश्ता करने के लिए पत्नी के पास किचन में आ गया।
पत्नी जो थी, वह नाश्ता करने के मूड में तो थी, किन्तु बनाने के मूड में कतई नहीं दिखी। वह आज संडे मनाने के मूड में थी और मैं दो अक्तूबर। दिन एक ही था लेकिन हम दोनों उसे अलग-अलग नज़रिए से देख रहे थे। मेरे लिए आज दो अक्तूबर था किन्तु उसके लिए आज संडे था। मैं सादगी से दिन मनाना चाहता था और वह किसी रेस्तरां में जाकर दिन की शुरूआत करना चाहती थी। मुझे दो अक्तूबर दिखाई दे रहा था, उसे संडे। मैं कह रहा था कि साल में एक बार तो आता है दो अक्तूबर। वह कह रही थी कि सप्ताह में एक बार तो आता है संडे। इस बार हाथ से गया तो फिर अगले सप्ताह ही आयेगा। उससे पहले नहीं। उसकी बात भी सही थी। आज निकलने के बाद संडे जल्दी तो आने वाला नहीं था। सात दिनों बाद ही आता। सात दिन से पहले तो हरगिज नहीं आता। मेरे कहने से क्या, गांधी जी के कहने से भी नहीं आता। अब क्या होना था। मैं गांधी को फालो कर रहा था किन्तु वह बा नहीं थी इसलिए गांधी जी को फालो करने को तैयार नहीं थी। लिहाज़ा, गांधी जी तो हाथ से निकल ही गये थे, दो अक्तूबर भी फिसलने लगा।
दोपहर में तो हद हो गयी। मैं लगातार चैनल पर चैनल बदलता रहा कि कहीं गांधी जी दिखाई दे जाएं। लेकिन किसी चैनल पर गांधी जी नहीं दिखे। जो लोग गांधी जी का नाम लेते दिखे भी, वे मुझे कहीं से भी गांधीमय नहीं लगे। शायद राम जी की तरह गांधी जी भी बनवास पर चले गये थे।
शाम को मैं इस चक्कर में था कि गांधी जी के किसी भक्त से भेंट करूं और अपना दिन जैसे भी कटा हो रात तो गांधी जी को सिमरन करके काटूं। लेकिन ऐसा संभव न हो सका। एक ऐसे मित्र मिलने आ गये जिनका गांधी जी के नाम से तो क्या, स्वभाव से भी दूर-दराज का कोई रिश्ता फिट नहंी होता था। उलटे, वे गांधी जी के नाम से ही बिदकते थे। मैंने उन्हें दो अक्तूबर की शुभकामनाएं दीं तो वे हिंसा पर उतर आये। दो अक्तूबर ना भी होता तो भी मैं हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा से नहीं दे पाता। फिर आज तो गांधी जयंती थी। 

Sunday, 2 October 2011

बस, तू कब आयेगी!



बस की प्रतीक्षा में खड़ा यात्री स्वयं से पूछता है- बस, तू कब आएगी?
दुनिया में बस ही एक ऐसी चीज है जिसके बारे में प्रतीक्षारत् यात्री कभी नहीं कहता, कि अब ‘बस’ भी कर। मत आ। वह प्रतीक्षा करता रहता है, अनवरत्। एक बस आती है, और चली जाती है। नहीं रूकती। दूसरी आती है और चली जाती है। भरी हुई है, कैसे रूके। यात्री झींकता है। पर प्रतीक्षा करना उसकी मजबूरी है। उसकी किस्मत में प्रतीक्षा करना लिखा है। वह चलता-फिरता प्रतीक्षालय है जिसमें बैठा वह अकेला प्रतीक्षा करता रहता है बस की। उसे लगता है कि वह सारी उम्र प्रतीक्षा करता रहेगा उस बस की, जो आती है और चली जाती है। कभी रूकती है तो भरी हुई होती है और जब नहीं रूकती तो उसे मानना पड़ता है कि भरी हुई होगी। वह अगली बस की प्रतीक्षा करने लगता है, जिसके बारे में उसका यह मानना होता है कि वह भरी हुई नहीं होगी, खाली होगी। लेकिन वह बस कभी नहीं आती जो खाली हो। आती है तो खाली नहीं होती। खाली होती है तो रूकती नहीं। रूकती है तो कोई सीट खाली नहीं होती।
वह प्रतीक्षारत् है, किसी खाली बस के लिए। 
वह कल्पना करता है कि बस उसके पास आकर रूकेगी। कण्डक्टर मुस्कुराकर उससे पूछेगा, कहां जाना है? 
यात्री कहेगा, मोतीचूर। 
कण्डक्टर जवाब देगा, आइये बैठिये। यह बस तो सीधे मोतीचूर तक ही जा रही है। 
फिर वह बस में चढे़गा किसी शाही अंदाज में। बस, बिलकुल खाली होगी, जैसे उसी के लिए बनी हो। वह सबसे आगे वाली सीट पर जाकर बैठ जायेगा। फिर तुरन्त उठेगा और पीछे वाली सीट पर बैठ जायेगा। उसे वहां भी चैन नहीं आयेगा तो वह कण्डक्टर के साथ बैठ जायेगा। वह चालक की सीट पर भी बैठना चाहेगा। अंततः, वह खड़ा होकर यात्रा करेगा, जैसे कि वह प्रतिदिन करता है।
परन्तु ऐसा नहीं होता। बस नहीं आती बहुत देर तक। आती है, तो रूकती नहीं। रूकती है तो तो खाली नहीं होती। खाली होती है तो मोतीचूर नहीं जा रही होती। अर्थात कुछ न कुछ ऐसा होता है कि वह प्रतीक्षा करता रह जाता है, अगली बस की। अगली बस, जो नामालूम कब आयेगी। आयेगी तो रूकेगी नहीं। रूकेगी तो चांदपुर की होगी, वहां की तो बिलकुल ही नहीं होगी, जहां पर वह जा रहा होगा।
एक बस जीवन भर यात्री को प्रतीक्षा कराती है और दिन में सैकड़ों यात्री जीवन भर बस की प्रतीक्षा करते हैं और एक दूसरे से पूछते हैं - बस, तू कब आयेगी? ऐरी बस, तू कब आयेगी? बस री, तू कब आवेगी? यही जीवन की बस है।


Tuesday, 24 August 2010

मुल्क की आज़ादी और खाकसार की दाढ़ का दर्द

शीर्षक खाकसार की दाढ़ के दर्द की तरह कुछ लम्बा हो गया है लेकिन डाक्टर का कहना है कि घबराने वाली कोई बात नहीं है।
जब जांच के बाद डाक्टर अपनी मुखमुद्रा सांप कांटे वाले व्यक्ति की तरह बना लेता है या उस बैंक कर्मी की तरह बना लेता है जिसका एरियर उसे साढे़ तीन साल बाद भी न मिले तो रोगी का रक्तचाप बढ़ जाता है और वह घबराकर पूछता है कि डाक्टर साहब, घबराने वाली कोई बात तो नहीं है? यानी इजाजत दे ंतो घबराना शुरू करूं।
डाक्टर अपना कैंची हथौड़ा एक तरफ जाकर मांजते हुए जवाब देता है- नहीं, घबराने वाली कोई बात नहीं है।
रोगी को सांत्वना मिलती हैं। वह समझ जाता है कि घबराने वाली कोई बात नहीं है।
बिलकुल वैसे ही जैसे उत्तर में गोला बारूद चल रहा है, दक्षिण में नक्सलवाद ठांठूं कर रहा हैं, आदमी की जान लेना शगल मान लिया गया है, रिश्वत दिये लिये बिना कोई काम करने को राजी नहीं है, और... और घबराने वाली कोई बात नहीं है।
दाढ़ में दर्द है कि बढ़ता ही जा रहा है। डाक्टर कहता है कि करार जल्दी आ जायेगा। मैं जानता हॅूं कि करार तब आयेगा जब डाक्टर के साथ पूरे जबड़े का करार करूंगा।
डाक्टर सलाह देता है कि रूट कैनाल करा लो। उसकी नीयत जड़ खोदने में है। मैं मना कर देता हॅंू । मैं बीमारी की जड़ तक पहुंचना चाहता हॅू। जैसे प्रधानमंत्री कश्मीर पहंुच गये। दर्द असहनीय हो रहा है। मैं डाक्टर से कहता हूं कि जल्दी से दाढ़ निकाल लो, मैं इसे कोई राजनीतिक रंग नहीं देना चाहता। डाक्टर राजी हो जाता है। थोड़ी देर बाद दाढ़ को ससम्मान निकाल दिया जाता है जैसे सीरीज हारने के बाद कोच को ससम्मान निकाल दिया जाता है।
दर्द अभी भी बदस्तूर जारी है। मैं डाक्टर के पास दोबारा जाकर पूछता हूं कि घबराने वाली कोई बात तो नहीं। डाक्टर अपना चिमटा हथौड़ा हाथ में लेकर कहता है कि नहीं, घबराने वाली कोई बात नहंी है।
मैं बताता हूं कि दर्द तो अभी भी हो रहा है। डाक्टर अवगत कराता है कि दर्द मसकुलर है। देखिये न, दर्द दर्द में अंतर है। पहले पेन था अब मसकुलर पेन है। मैं दर्द के मारे बिलबिला रहा हॅंू। डाक्टर नाराज होता है। आप तीन घंटे में ही परेशान हो गये। सोनिया जी को देखिये, साढ़े तीन साल से ममता-मसकुलर झेल रही है।
मैं बोल नहीं सकता था, इसलिये नहीं पूछा कि कौन सोनिया जी? सिर्फ आइडिया लगाकर रह गया कि कौन सी सोनिया जी।
डाक्टर ने मुझे च्युंगम चबाने की सलाह दी। बोला, मसकुलर में फायदा होगा।
दो घंटे बाद मैंने डाक्टर को फोन किया-डाक्टर साहब, रबड़ चबाचबाकर थक गया हूं, दर्द में कोई आराम नहीं है। ऊपर से च्यंूगम का खर्चा और बढ़ गया है। 
उधर से डाक्टर के रोने की सी आवाज आयी- मुल्क का मसकुलर नहीं है जो च्यंगम की तरह लम्बा खींचने पर आराम होगा। इसे तो चबाये जाओ। कलमाड़ी ने चाहा तो जरूर लाभ होगा।
मैं इसे राजनीतिक रंग नहीं देना चाहता था। सो पूछा- डाक्टर साहब, घबराने वाली तो कोई बात नहंीं है।
डाक्टर ने फोन पटक दिया।
आप से ही पूछता हूं - घबराने वाली कोई बात तो नहीं?











Tuesday, 3 August 2010

क्या करेंगे आप!


फेसबुक पर जब आप कोई खूबसूरत सा चेहरा देखने के बाद उससे दोस्ती करना चाहें और मैसेज भेजने पर भी वो जवाब न दे तो क्या करेंगे?
दोबारा मैसेज भेजेंगें?
या उसे आवाज देंगे?
जब आप किसी ब्लॉग पर अपनी टिप्पणी छोडे़ और आपकी टिप्पणी सात दिनों बाद भी प्रकाशित न हो, तो?
क्या करेंगे आप?
सिर धुनेंगे?
जब पूरे महीने आपका घर बंद होने के बाद भी आपको पांच हजार का टेलीफोन का और दस हजार का बिजली का बिल मिले तो?
जी बताइये, क्या करेंगे आप?
क्या मेन लाइनपकड़ लेंगे?
जब पन्द्रह दिनों की लीव के बाद  ऑफिस पहुँचने पर पिछले दो सप्ताहों की सारी पैंडिंग फाइलें आपको अपनी टेबिल पर मिलें तो क्या करेंगे आप?
क्या दोबारा मेडिकल लीव पर चले जायेंगे?
या गधे की तरह फिर से जुट जायेंगे?
आप रिश्वत लेने में विश्वास नहीं रखते ; लेकिन जब आपसे आपके काम को कराने के लिए रिश्वत माँगी जाये, तो?
क्या रिश्वत देकर काम चलायेंगे?
फिर खुद भी रिश्वत लेना प्रारम्भ कर देंगे?
आप दहेज के खिलाफ हैं। चाहते हैं कि जब आपकी शादी हो तो आप एक पैसा भी लड़की वाले से नहीं लेंगे। लेकिन जब आप अपनी बहिन के रिश्ते की बात चलाएं और लड़के वाले आपसे दहेज की माँग करें, तो?
क्या करेंगे आप? दहेज देंगे?
या अब लेंगे?
आप पुस्तकें खरीद कर पढ़ने में विश्वास रखते हैं। पूरे साल का सब्सक्रिब्शन भेजने के बाद भी आपकी पत्रिका घर पर न पहुँचे, तो?
किसके कपड़े फाड़ेंगे?
डाकिये के या अपने?
आपने दो अलग-अलग परीक्षाओं की तैयारी की है। मालूम हुआ कि दोनों परीक्षाएँ एक ही दिन हो रही हैं। क्या करेंगे?
पैसे वापिस माँगेंगे?
या अपना क्लोनतैयार करके उसे भेजेंगे?
पत्नी को झूठ बोलकर प्रेमिका के साथ उसी होटल में पहुँच जाते हैं ;जिसमें पहले से ही पत्नी अपने दोस्त के साथ बैठी है, तो?
भाग जायेंगे?
या पत्नी को विशकरके वहीं डिनर लेंगे?
आप लिबरलहैं। पत्नी को उतनी ही छूट देते हैं; जितनी आप लेते हैं। पत्नी आपके दोस्त के पास जाना चाहती है। क्या करेंगे?
उसे दोस्त के घर तक छोड़कर आयेंगे?
या खुद ही जाने को कहेंगे?
यह लेख पढ़ते - पढ़ते आपको अचानक लगता है कि इसमें तो आप पर ही निशाना साधा गया है, तो क्या करेंगे?
मुस्कुराकर पढ़ते रहेंगे?
या पढ़के मुस्कुरायेंगे?
या न मुस्कुरायेंगे, न पढ़ेंगे?

Friday, 23 July 2010

अपनी दुनिया का पागल

हर आदमी कहीं न कहीं खोया हुआ है। हम उसे कहीं पाते भी हैं तो खोया हुआ ही पाते हैं। कोई पैसा कमाने में खोया है तो कोई गंवाने में। मेरे एक मित्र शेयर मार्केट में ही खोये हुए हैं। जीवन का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने शेयरों के उठने और गिरने के नाम कर दिया। इस चक्कर में वो जीवन में कई बार गिरे और कई बार उठे। आज भी वे सुबह शेयर बाजार के उठने से पूर्व ही उठ जाते हैं तथा शाम को शेयर बाजार के  गिरने पर बिस्तर पर इस लक्ष्य के साथ गिरते हैं कि इंशाअल्लाह कल सुबह फिर शेयर बाजार के साथ ही उठेंगे।
एक अन्य परिचित जमीनें खरीदनें में ही खोये हुए हैं। खरीदते हैं, बेचते हैं, खरीदते हैं, बेचते हैं। सुना है उन्होंने अपने लिये दो गज जमीन भी खरीद ली है जिसे वे जल्दी ही अपनी पत्नी को अच्छे दामों पर रीसेल करने जा रहे हैं।
एक अन्य परिचित दारू की बोतल के साथ खोये हुए हैं। बोतल के साथ ही वे उठते हैं तथा बोतल के साथ ही सोते हैं। ऑफिस भी बोतल को साथ ही लेकर जाते हैं। हाथ में फाइलें होती हैं, लंच बाक्स होता है, और होती है दारू की बोतल। वहां बैठकर पूरा लुत्फ उठाते हैं। साहब ने फाइल पास कर दी तो खुशी के दो घूंट मार लिये और फाइल पर विपरीत टिप्पणी कर दी तो गम के चार घूँट 
यानी हर आदमी का अपना दीन और अपना निजी ईमान होता है और वह अपनी ही दुनिया में खोया रहता है। लेखक है तो उपन्यास में और ई-लेखक है तो ब्लॉगिंग में। कवि है तो कविता में और अकवि है तो अपनी निजी 'कविता' में।
गर्ज यह है कि खोये हुए आदमी की अपनी ही दुनिया होती है। उसकी यह दुनिया उसे जीने की राह दिखाती है। वह अपनी ही दुनिया में पागल होता है, अपनी ही दुनिया का पागल होता है।
पागल आदमी के भी अनेक प्रकार होते हैं। कोई एक नम्बर का पागल होता है तो कोई परले दरजे का। कुछ पागल आपको सडकों पर घूमते और मारे-मारे फिरते दिखाई देंगे तो कुछ का स्तर इतना ऊंचा होता है कि उन्हें अपने इस विशेषण को मेन्टेन करने की पगार भी मिलती है और कुर्सी भी।
पागल लोग लोक में बिखरे पडे़ हैं। उनकी अपनी दुनिया होती है। लेकिन उनकी दुनिया से उन्हें दूर करने का प्रयास क्यों किया जाये? उनकी दुनिया दूर होने का अर्थ है उनसे उनका जीवन छीन लेना। यह उनकी जीवन का फलसफा होता है।अब पागलों की तरह पागलों पर लिखना पागलपन नहीं तो और क्या है

Friday, 16 July 2010

छोटे शहर में light

छोटे शहर में लाइट उतनी देर ही रहती है जितनी देर बड़े शहर में आदमी टॉयलेट में रहता है।
यह जानने के लिये कि छोटे शहर में चौबीस घंटों में कितनी देर लाइट आती होगी, आपको टॉयलेट मे जाने की जरूरत नहीं। यह बात आप टॉयलेट के बाहर बैठकर भी जान सकते हैं।
छोटे शहर का आदमी कम्प्यूटर के सामने अपनी ईमेल चैक करने के लिये बैठता है तो लाइट चली जाती है और आदमी बेचारा अपनी फीमेल ही देखता रह जाता है। शायद इसलिये छोटे शहर की लाइट जाने पर आदमी सीधा चीफ मिनिस्टर को कोसता है, पॉवर ग्रिड को नहीं।
लाइट जाने के बाद अंधेरे में कौन-कौन से कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं, इस पर अनगिनत पोथियां लिखी जा सकती हैं। लेकिन लाइट आने के बाद छोटे शहर का आदमी जो कार्य सर्वप्रथम करता है' वह होता है अपनी और अपने घर की बैटरियां चार्ज करना।
कुछ वर्षों पूर्व मैंने अपने एक कजिन से जो एक महानगर में रहता था, बात-बात में पूछा था कि आपके यहां लाइट कब-कब जाती है, सुनकर उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था कि मैंने तो यहां कभी लाइट जाती देखी ही नहीं।
प्रतिउत्तर में मैंने अपने कजिन का मजाक उडाया कि तुम कितने दुर्भाग्यशाली हो जो जाती हुई लाइट को आज तक देख नहीं पाये। हमें देखो कि हम एक छोटे से कस्बे में रहते हैं फिर भी इंसान के इस चमत्कार को दिन में अडतालीस दफा (उन दिनों हमारे टाउन में लाइट अडतालीस बार जाती थी) देखते हैं।
जब वह फिर मुस्कुराया तो मैंने उसे लताडा कि यह मुस्कुराने का नहीं, झेंपने का विषय है कि उसने कभी लाइट को जाते हुए नहीं देखा।
मेरी पत्नी जब कभी लाइट का संदर्भ लेते हुए छोटे शहर को छोड कर बडे शहर में शिफ्ट करने का सुझाव देती है तो मैं उसे समझाता हूं कि हमारे यहां लाइट बार-बार जा रही है तो बार-बार आ भी तो रही है। बडे शहर में तो सिर्फ एक बार ही जाती है और एक बार ही आती है।
मैं उसे यह भी समझाता हूं कि हम उनसे बेहतर स्थिति में हैं जिन गांवों में लाइट एक बार जाती है तो फिर कभी नहीं आती।
जैसे इस देश में ईमानदारी की बत्ती एक बार गुल हुई है तो उसके दर्शन अभी तक नहीं हुए।
वैसे भी बड़े शहर के सामने छोटे शहर की बत्ती हमेशा गुल ही रहती है।
कभी आधी रात को आपको, हाथ में पंखा लिये, छतों पर टहलते, पसीना सुखाते और मच्छर मारते हुए लोग छतों पर दिखाई दें तो आप समझ जाइये कि आपका हवाई जहाज लाइट आने की प्रतीक्षा में रात काटते हुए किसी छोटे शहर के ऊपर से गुजर रहा है।

Monday, 5 July 2010

कुत्ता-दर्शन


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Sunday, 27 June 2010

झूठ



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Wednesday, 23 June 2010

चौथा idiot


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